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________________ नारी-जीवन भारतवर्ष के एक प्राचीन मनीषी से, विचारक से और दार्शनिक सन्त से पूछा कि स्वर्ग कहाँ है ? बहुत बड़ा प्रश्न है और एक जटिल प्रश्न है यह । अनन्त-अनन्त काल से मनुष्य के सामने यह प्रश्न रहा है, स्वर्ग कहाँ है ? सन्त से पूछा और उसने चिन्तन के समुद्र में गहरी डुबकी लगाई । डुबकी लगाने के बाद जब उनका चिन्तन ऊपर उभर कर आया, तो वे बोले-“जिस घर में गृह स्वामिनी और नारी की आँखों में प्रेम की ज्योति जलती रहती है और हृदय में प्रेम का सागर हिलोरें मारता है । जिसके हाथों से दान की, सेवा की अनन्त-अनन्त वर्षा होती रहती है, जो इधर-उधर के कड़वेपन को, अपमान को, तिरस्कार को और चारों ओर से होती हुई निरन्तर जहर की वर्षा को पीकर उसे अमृत बना और फिर उस अमृत की वर्षा करती है; वह गृह स्वर्ग है ।" प्रश्न पूछा कि नरक कहाँ है ? दूसरा प्रश्न भी वायुमण्डल में घूम गया । वही पुराना प्रश्न; जो कि हजारों, लाखों, करोड़ों और अनन्त-अनन्त वर्षों से समाधान माँगता रहा है । सन्त ने पुनः चिन्तन के सागर में डुबकी लगाई और जब चिन्तन ऊपर उभर कर आया तो वे बोले-"जिस घर की मालकिन मुँह चढ़ाया करती है, बात-बात पर जिसकी त्योरियां चढ़ जाती हैं । जरा इधर-उधर सेवा का काम आ पड़ा तो बड़बड़ाने लगती है । जो स्नेह के, प्रेम के, सद्भावनाओं के अमृत को लेती है; परन्तु उस अमृत को पीकर बदले में जहर उगलती रहती है । एक दूसरे की निन्दा करती रहती है । एक दूसरे के बीच आपस में तेरे और मेरे की दीवारें खड़ी करती रहती है । जो छोटे से घर के टुकड़े-टुकड़े करती रहती है । जहाँ ऐसी नारी है, वहीं उसी घर में नरक है ।" __ यहाँ आकाश के स्वर्ग की चर्चा नहीं और न ही पाताल के नरक की चर्चा है । यह उस स्वर्ग और नरक की चर्चा है जहाँ मनष्य निवास करते हैं और जिसके फलस्वरुप आकाश पाताल का स्वर्ग मिला करता है । यह उस बात उस सन्त ने आध्यात्मिक भाषा में, दार्शनिक भाषा में और अलंकार के शब्दों में कही और एक परम-सत्य, जीवन का महत्वपूर्ण सत्य उनकी वाणी में उभर आया । उस सत्य पर अगर ठीक तरह से विचार किया जाए, तो उसमें आपको असत्य का एक अंश भी नहीं मिलेगा । - १२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
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