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________________ पर्युषण - ! -प्रवचन था उसी प्रकार धर्म और कर्म के क्षेत्र में हजारों वीर अर्जुन हो गए हैं । तो आज का अर्जुन जब प्रश्न करता है, तो समाधान करने के बजाय धर्म के सिंहासन चुप हो रहे हैं और धर्म के ये दावेदार मौन पकड़ रहे हैं । न उनसे हाँ कहते बनती हैं और न उनसे ना कहते बनती है । जातीयता के प्रश्नों पर व्यर्थ के उन क्रिया काण्डों पर, जो समाज को बाहर और अन्दर से सड़ा रहें हैं; जब कभी समाधान चाहते हैं तो धर्म के ये ठेकेदार मौन पकड़ लेते हैं । आज से ढाई हजार वर्ष पहले भगवान महावीर ने कहा है – “मैं वह नहीं हूँ, जो न इधर हूँ, और न उधर । मैं वह हूँ जो ठीक किनारे पर हूँ । जीवन के सिद्धान्तों के सम्बन्ध में यदि हाँ हो तो हाँ कहने में मुझे कोई हिचक नहीं और यदि ना हो, तो उसमें भी कोई हिचक नहीं । संसार की कोई ताकत नहीं, जो मुझे रोक सकती हो ।" मैं कह रहा था कि आज का तर्कवादी मानव जब प्रश्न करता है तो जवाब मिलता है कि तुम्हीं समाधान करो । अन्धा बेचारा रास्ता नहीं देख पा रहा है । वह रास्ता पूछ रहा है और जवाब मिलता है कि तू ही देख वह देखे कैसे ? मैं आपसे विचार कर रहा था कि किसी भी देश की या समाज की बौद्धिक शक्ति गिर जाती है प्रकाश नहीं रहता है, तब उस देश, समाज या राष्ट्र का कल्याण नहीं हो सकता । और इस प्रकार सामाजिक या राष्ट्रीय क्षेत्र में हमारे हाथ खाली हो गए हैं । इन हाथों में न तो धन का उत्पादन करने की शक्ति है और न धन को अर्पण करने की शक्ति ही है । न ही हाथों में वह शक्ति है कि जिसमें कुछ अर्जन उत्पादन किया जा सकता है और न वक्त पड़ने पर हीरे जवाहरात के जो ढेर हैं, उनका लुटा देने की ही शक्ति आज हाथों में है । आज वह तो साँप की तरह फुसकार मार रहे हैं, बिच्छू की तरह डंक मार रहे हैं । वह आकाश के तारों से भाग्य का फैसला पूछ रहें हैं, लेकिन इस जीवन प्रवाह में जो कि जीवन के तारे हैं, उनसे अपने भाग्य का फैसला नहीं पूछते । Jain Education International मैं कह रहा था कि आज देश दरिद्र है और दरिद्रता से बढ़कर संसार में दूसरा कोई पाप नहीं, अभिशाप नहीं । भारतवर्ष तो वह देश है, जहाँ बच्चे भोजन के लिए तिलमिला रहे हैं । माता - पिता एक एक दाने के लिए तड़फ रहे हैं और चारों ओर दरिद्रता का दैत्य खड़ा है विकराल स्वरूप में । वहाँ है कोई माई का लाल ? वहाँ अगर पाप नहीं होगा तो क्या होगा ? जो भूखे हैं, उन्हें कुछ अच्छा मालूम नहीं १२६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
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