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अतिमुक्तक की मुक्ति
पकड़े आते देखा तो उसका हृदय गद्गद हो उठा । उसकी आँखें भीग गईं । हर्ष-विह्वल-सी उठ कर गौतम स्वामी के सामने आई, तीन बार प्रदक्षिणा करके उन्हें भीतर चौके पर ले गई । जो कुछ भी शुद्ध आहार आदि था, बड़ी भक्तिपूर्वक दिया । गौतम स्वामी जब चलने लगे तो वह द्वार तक छोड़ने आई । अतिमुक्तक एक क्षण तो रुका, फिर वह दौड़कर गौतम स्वामी के साथ हो गया । अब उसका मन गौतम स्वामी से दूर हटने को नहीं होता था, जैसे अन्न के साथ मन भी गौतम को दे दिया हो । रास्ते में उसने गौतम स्वामी से पूछा-आप कहाँ रहते हैं ? गौतम स्वामी ने उत्तर दिया-देवानुप्रिय ! मेरे धर्माचार्य धर्मगुरु जिनसे मुझे अर्थ ज्ञान मिला और जो वर्तमान युग के धर्म-नेता हैं और प्रवर्तक हैं, उन भगवान महावीर के पास रहता हूँ । मैं उनका शिष्य हूँ । आज भगवान का समवशरण श्रीपुर उद्यान में लगा है, मैं वहीं पर जा रहा हूँ । इस पर कुमार ने पूछा-क्या मैं भी वहाँ चलकर आपके धर्म गुरु की वन्दना कर सकता हूँ ? गौतम ने कहा—जैसा तुझे प्रिय लगे ? वह भगवान महावीर के पास पहुँचा और उनकी वन्दना करके सभा में बैठ गया । कुमार ने भगवान का सरस और सुन्दर उपदेश सुना, उसे बहुत भाया । भगवान की वाणी उसे बहुत प्रिय लगी । मन हुआ कि मैं भी भगवान का शिष्य बन जाऊँ ? वह उठकर भगवान महावीर के पास आया, और भगवान से कहा-मुझे आपका उपदेश बहुत ही अच्छा लगा । मैं अपने माता-पिता को पूछकर आपके चरणों में हो दीक्षा लेना चाहता हूँ ! भगवान ने कहा—जैसा तुम्हारी आत्मा को प्रिय हो, सुख हो वैसा करो । भगवान महावीर का यह 'इच्छा-योग' जैन धर्म की महत्वपूर्ण वस्तु है । कभी किसी पर दबाव नहीं, हठ नहीं ! आत्मा को जगाना सिर्फ उनका काम था, जागृत होने पर स्वतः प्रेरित होकर वह भगवान के चरणों में आने को आतुर हो उठता ! महावीर का एक ही उत्तर रहा–जहासहं देवाणुप्पिया !-जैसा तुम्हारी आत्मा को सुख हो वैसा करो, इसके आगे उनका दूसरा निर्देश होता-मापडिबंधं करेह यदि करना है तो विलम्ब मत करो । जब तक किसी काम के लिए आत्मा तैयार नहीं होती, तभी तक ही विलम्ब होता है, झंझट रहता है । जब कल्याण मार्ग का निश्चय हाथ आ गया, आत्मा तत्पर हो उठा तो फिर विलम्ब कैसा ? यदि कोई कहे कि अमुक कार्य के लिए मेरी आत्मा तो तैयार है किन्तु सोचूँगा तो इसका अर्थ
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