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अतिमुक्तक की मुक्ति
हजारों श्रावक उस नगरी में बसते थे, वहाँ का राजा विजयसिंह और रानी श्रीदेवी भी भगवान महावीर के श्रावक थे । राजकुमार का नाम था, अतिमुक्तक कुमार ।
__ भगवान महावीर जनपद में विहार करते हुए पोलासपुर में पधारे । गौतम स्वामी भगवान के प्रथम गणधर थे । उनके प्रमुख शिष्य थे । १४ हजार साधुओं और २६ हजार आर्याओं के संघ के संचालक और प्रमुख थे, किन्तु इतने बड़े होने पर भी उनके जीवन में वही सरलता और वही सादगी थी, जो कि एक सामान्य मुनि के जीवन में होती है । बहुत बार देखा जाता है कि मनुष्य के त्याग को महत्त्व देकर उसे प्रतिष्ठा दी जाती है, किन्तु धीरे-धीरे वह प्रतिष्ठा, अधिकार और सत्ता, उसके त्याग को निगलना शुरू कर देती है, जीवन में सिर्फ प्रतिष्ठा और अधिकारों की होड़ रह जाती है, त्याग का महत्व चला जाता है । गौतम स्वामी के पास बहुत अधिकार थे, प्रतिष्ठा और सम्मान था, किन्तु अधिकार और प्रतिष्ठा के पानी से सदा ही कमल की भाँति निर्लेप रहे । उनकी महानता ने उन्हें अपने आपको कभी महान नहीं मानने दिया, वे अपना प्रत्येक काम अपने हाथ से करते, बेले-बेले तपस्या करते और पारणे के लिए स्वयं ही हाथ में झोली लिए घर-घर में घूमकर भिक्षा लेते । क्या भगवान महावीर के १४ हजार शिष्यों में कोई भी ऐसा शिष्य नहीं था, जो गौतम स्वामी को भिक्षा लाकर देता । वास्तव में बात यह नहीं थी कि कोई दूसरा लेकर देता है या नहीं, किन्तु वहाँ पर भी श्रम अपने श्रम और निर्जरा का था । जैन श्रमण-यदि अपनी 'श्रम' की परम्परा को छोड़कर चले तो फिर 'श्रमण' की सार्थकता ही क्या हुई ? जैन दर्शन की यह खूबी है कि वहाँ 'श्रम' के साथ 'कर्तव्य' और कर्तव्य के साथ कर्म निर्जरा की भावना इस प्रकार गुथी हुई है कि न तो श्रम कठोर लगता है और न ही कर्तव्य कोई भार होता है । प्रत्येक श्रमण अपने कर्तव्य में रस आनन्द लेकर करता है । उसे यदि दूसरे की सेवा का अवसर भी मिलता है तो उसे बड़ी खुशी होती है कि उसे कर्म निर्जरा का एक और अवसर मिला है । कर्तव्य पालन करने की दृष्टि से हर कोई कर सकता है, किन्तु उस कर्तव्य पालन में भी जो आनन्द की अनुभूति होनी चाहिए वह हर कोई नहीं कर सकता । जैन श्रमण की यही तो वह विशेषता है कि वह सेवा करने में आनन्दानुभूति करता है, जब यह आनन्दानुभूति अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है तो वह उस मस्ती में झूमता हुआ तीर्थकर गोत्र भी प्राप्त कर लेता है । हाँ, तो इसीलिए
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