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अतिमुक्तक की मुक्ति
बौद्ध साहित्य में थेर गाथा और थेरी गाथा नाम से दो लघु ग्रन्थ हैं, जिनमें अनेक भिक्षु एवं भिक्षुणियों के जीवन से सम्बन्धित प्रेरक घटनाएँ
और उनकी मस्ती एवं अनुभूति में परिपूर्ण सुन्दर वचनावली का संकलन किया गया है । उसको पढ़ने पर मालूम होता है कि उस युग में पुरुषों की तरह नारी में कितनी चेतना जागृत हुई थी, तत्त्व ज्ञान की गंभीरता और दुर्धर्ष त्याग मार्ग का अवलंबन करने की शक्ति पुरुषों से किसी भी प्रकार कम नहीं थी । बौद्ध साहित्य के उपरोक्त दो ग्रन्थों को जब जैन-आगमों के आठवें अंग ग्रन्थ अन्तकृत् दशा के समक्ष रखते हैं तो ऐसा लगता है कि जैन साहित्य की यह महाथेर गाथा है । आज उसमें सिर्फ चरित्र भाग ही अवशिष्ट रहा है, जिसमें बड़ी संक्षिप्त शैली में अनेक राजकुमारों और राजरानियों के त्याग, तपस्या और कष्टों की रोमांचक गाथाएँ मात्र बची हैं, किन्तु हो सकता है किसी समय में उन महान साधकों की साधना से प्राप्त मस्ती और अपूर्व अनुभूतिपूर्ण वचनावलियाँ भी उसमें रहीं हों, जिनका महत्वपूर्ण भाग आज विलुप्त हो गया है । किन्तु जो जीवन-गाथाएँ बची हैं, वे भी बहुत ही प्रेरक हैं, उनमें जीवन का सत्य है, साधना का सही स्वरूप है । उनमें भोग-विलास के कीचड़ में पैदा होने वाले कमल की कहानियाँ हैं, जिनका सौरभ आज हजारों वर्षों के बाद भी मन के कण-कण में सुगन्ध भर रहा है । अतिमुक्तक
कुछ महान पुरुषों और महान नारियों की चर्चा कर चुकने के बाद अब हम उस अलबेले और उस लाड़ले राजकुमार की गाथा पढ़ते हैं, जिसका बचपन फूलों की तरह खिला, आमोद-प्रमोद में बीता और वही बचपन वैराग्य के कठोर और गहन मार्ग पर चल पड़ा ।
पूर्व भारत में पोलासपुर नगर था । यह कहाँ था कैसा बसा था---इस विषय को लम्बाने से कोई तथ्य हाथ नहीं लगेगा, चूँकि ऐतिहासिक दृष्टि से यह चर्चा ठीक हो सकती है, किन्तु इससे घटना का मूल अभिप्राय थोड़ा दूर हट जायेगा । अभी हम इतना ही मान लें कि वह एक अच्छा नगर था, और इस प्रान्त की राजधानी भी थी । भगवान महावीर के
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