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________________ करता है, और उनसे आच्छन्न हो जाता है और वही उन्हें बिखेर भी देता है और मुक्त हो कर प्रकाशमान हो जाता है। दोनों ही लीला सूर्य की अपनी है, और किसी की नहीं। यही स्थिति अन्तर्जगत में आत्मसूर्य की है। वह जब अपनी विभाव शक्ति के द्वारा चालित होता है, तो अनन्त-अनन्त कर्मपुद्गलों का बन्धन करता चला जाता है और कर्मपटल से आवृत हो जाता है। और जब वही स्वभाव शक्ति के रूप में परिणत होता है, हर क्षण में अनन्त-अनन्त कर्म दलिकों को क्षीण कर बन्धन मुक्त हो जाता है, फलतः मूल रूप प्रकाशमान हो जाता है। साधक जब इस प्रकार कर्म के अशाश्वत और आत्मा के शाश्वत सत्य की अनुभूति को हृदयंगम कर लेता है, तब वह क्यों नहीं प्रबुद्धता को प्राप्त होगा? और क्यों नहीं बन्धन मुक्त होगा? समस्त पार्थिव अस्तित्वों के बंधनों से मुक्त हो कर वह अवश्य ही दिव्यात्मा बनता है, और अन्ततः परमात्मभाव की अनन्त ज्योतिर्मय स्थिति प्राप्त करता है। कर्म के विविध आयामी स्वरूपों एवं तत्सम्बन्धित समस्त भ्रान्तियों को जिसने अपने अन्तर्जीवन में से निराकृत करने की दिशा में अन्तर्यात्रा प्रारंभ की है, उसके सामने आत्मिक एवं मानवीय मूल्यों की आचार-संहिता स्पष्ट हो जाती है। जिनके अन्तर में इन्द्रियातीत मूल्यों का समावेश हो जाता है, तमस् से ज्योति की ओर अग्रसर होने के लिए जिनकी आन्तरिक अस्मिता एक अद्भुत तीव्रता का अनुभव करती है, अन्तर विरोध से परे निष्ठागत अनठापन और निजी वैशिष्ट्य के जीवन्त रूप को उपलब्ध करने के लिए जो देशकालानुसार इतस्तत: विकीर्ण हुए सारे विभेदों को सहानुभूतिपूर्वक समझने की कोशिश करते हैं, वे जड़ विचारों और कट्टर धर्मान्धता से परे होकर धर्म-भावना को अन्तश्चेतना के साथ-साथ काल के जागतिक प्रश्नों में भी अनुस्यूत करते हैं। इस स्थिति में आत्मवान साधक पूर्वबद्ध कर्मशृंखला को तो एक झटके के साथ तोड़ते ही हैं, साथ ही रागद्वेष आदि के विकल्पों से मुक्त, निलिप्त भाव से यथाप्राप्त कर्म करते हुए भी उसके बन्धन में नहीं आते। बाहर की क्रियाओं में बन्धन नहीं है। बन्धन है क्रियाओं के मूल में रहे हुए राग-द्वेषादि वैभाविक भावों में। अतः साधक आत्मा की यह भी एक महाशक्ति है, जो कर्म को अकर्म का रूप देती है, यथाकाल-कर्म करके भी उससे जल-कमल की भाँति लिप्त नहीं होती है। इसलिए भगवान् महावीर का कहना है कि आत्मा की जो महान् एवं अनन्त शक्ति है, उस शक्ति से जब साधक का यथार्थ परिचय प्राप्त हो जाता है, तब एक अद्वितीय आलोक शिखा ऊर्ध्वगमन करने लगती है और योग के परिभाषित शब्दों में कुण्डली से सहस्रार तक अपनी दिव्य किरणों को विकीर्ण कर देती है। यह जैन दर्शन का परिभाषित अर्हद्-भाव है और वेदान्त-दर्शन का परिभाषित ब्रह्म-भाव। जो साधक आत्म-शोधन और आत्मालोचन की प्रक्रिया से साहस के साथ गुजरते हैं, वे कर्मबंधन की उत्कट चुनौतियों का निष्ठापूर्वक सामना करते हैं। उन्हें इस बात का पता होता है कि कर्म के दृष्टिकोण और मन्तव्यों में धर्म और दर्शनों की अपनी कुछ भिन्नताएँ हो सकती हैं। पर, आत्मा की शक्ति के सम्बन्ध में ऐसा कुछ भी नहीं है। वह एक ऐसी महतो महीयाम् शक्ति है, जिसे प्रज्ञा-जगत् में जागृत कर सहज रूप से अपने को कर्मपाश से मुक्त किया जा सकता है। इतना ही नहीं, आत्मा की नित्य-निरन्तर विस्तृत एवं विकसित होती शक्ति, धर्म के मूलभूत अनन्त स्रोत को मनुष्य के सामने सूर्य की भाँति पूर्णतया स्पष्ट कर देती है। और इस विभक्त चेतना वाले जगत् में समत्व का, स्वातंत्र्य का एवं अनाविल प्रेम का विस्तार करती है। यह एक प्रकार का आन्तरिक रूपान्तरण है, एक आध्यात्मिक परिवर्तन है, और साधक के स्वभाव में विसंवादी स्वरों में सामंजस्य लाने की अमोघ क्रिया है। जब कर्म के मलधुल जाते हैं, और स्वभाव का रूपान्तर हो जाता है, तब अज्ञान की अधम एवं आत्मोद्धार-बाधक दशा के पाश से छूट कर आत्मा आत्मज्ञान की परम दशा में पहुँच जाती है। एक दशा से दूसरी उच्चतर दशा में विकसित होना, संक्रमण करना, उच्चतर जीवन के अन्वेषण का वह अंग है, जो चेतना में विखंडन की जगह संश्लेषण लाने का प्रयत्न करता है और तब प्राकृतिक शक्तियों और अपरिहार्य परिस्थितियों में भी मनुष्य किसी बंधे-बंधाये निष्ठुर एवं जड़ विधि-विधान में अपनी प्राज्ञ चेतना को विस्मृत नहीं करता, किसी भी प्रकार की जड़ता को स्वीकार नहीं करता। वस्तुतः यह एक वह अवस्था होती है, जहाँ चेतना का प्रतिबिम्ब अन्तर्जगत् की व्यापकता, अनन्तता, अविनश्वरता और रहस्यात्मकता पर एक भाव से झलकने लगता है। अविनश्वर एवं अविच्छिन्न अन्तः सत्ता से मानव का अविरल सम्पर्क होने पर अन्दर में आत्मशक्ति का वह विस्फोटहोता है कि जीवन की सारी धारा ही बदल जाती है। अनादि काल से अधोमुख प्रवाहित होनेवाला शक्ति-स्रोत ऊर्ध्वमुखी हो कर प्रवाहित होने लगता है। और तब साधक देह से नर हो या नारी हो, अन्दर में आत्मनिष्ठ होते हुए भी बाह्य जगत् में निष्काम भाव से अन्यों के लिए भी उभयमुखी जीवन के विकास हेतु मंगलकारी कार्य कर सकते हैं, और कर्ममल से लिप्त भी नहीं होते हैं। जो अपने को अपुनर्भव दशा में ऊपर उठा लेते हैं, ऐसे ही सर्वोत्तम शक्ति : आत्म शक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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