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________________ चेता ज्ञेयरूप की सक्रिय शान्ति, आत्मिक बल और आत्म-संयम की उपलब्धि असंदिग्ध रूप से नहीं हो सकी है। आत्मा की पहचान वह उदात्त संजीवनी शक्ति है, जो यथाप्रसंग अपने आपको दृश्य जगत में प्रकट करती है और समची जीवन-प्रक्रिया को मूलतः एक अखण्ड स्रोत के रूप में मानने के लिए अभिप्रेत बनाती है। इसी स्थल पर आ कर आत्माओं की वैयक्तिक स्वतंत्र शक्ति और सम्मिलित समुदाय की संगठित संकल्प शक्ति, महान उन्नतकारी शक्ति के रूप में परिवर्तित हो जाती है, जो लोक-मंगल के अनेकविध स्वर्ग-द्वारों को अनावत करती है। यहीं स्व और पर के रूप में विभक्त चेतनाएँ भगवान महावीर के 'एगे आया' के उच्च दर्शन के स्वर्णिम क्षितिज पर पहुंच कर भेदमुक्त अद्वैत स्थिति को प्राप्त होती है। युगों-युगों, जन्म-जन्मान्तरों से तहियाये हए कलष जब आत्मा के परिष्कृत स्वरूप की निर्मल भावधारा से धुल जाते हैं, तब मानवतावादी शुद्ध दृष्टिकोण से व्याख्यात व्यष्टि का विकास होता है और मानव अनेक में एक एवं एक में अनेक समाहित होकर सर्वव्यापक समष्टि का रूप लेता है। यही वह सीमा है जो सहजानन्द का अमृत-सागर है। परन्तु यह एक ऐसी उच्चतर अवस्था है, जिसे अहंकारपूर्ण इच्छाओं और आवेशों से ऊपर उठे हुए उदात्त संत प्रकृति के ध्येयनिष्ठ लोक ही उपलब्ध कर सकते हैं। और जब इस प्रकार की निरुपम उपलब्धि हो जाती है, तब कर्म-संस्कारों की कोई भी अमंगल क्षुद्र अहंमन्यता नहीं रहती और मानव के अन्तर में कालातीत सत्य की शाश्वतता का परिबोध प्रकाशमान हो जाता है। आत्मा की शक्ति को सर्वाङ्गीण रूप से हृदयंगम करने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य अपने भीतर कालातीत शाश्वतता का बोध जाग्रत करे और निष्काम भाव से नित्य नवीन ऊर्जाओं के द्वारा मानवीय सर्वमंगल संस्कृति, समाज एवं जन-जीवन को परिपूरित करे। प्रकाशमान हो जो विन को परिपूरित काम भाव से नित्य यह आवश्यक है कि जिस व्यक्ति ने जीवन के इस महान् सत्य को प्राप्त कर लिया है, उसके हृदय में विश्व-सृष्टि के प्रति प्रेम का अविच्छिन्न अनाविल सोता फूट पड़ता है और वह इतिहास के प्रत्येक काल में सार्वभौम हित एवं सत्य को ही देखता है। उसकी जीवन पद्धति पूर्व की अपेक्षा पूर्णतया बदल जाती है और वह सर्वत्र सब ओर जन-जीवन को सहिष्णुता एवं आदर की दृष्टि से देखने लगता है। उन भगवदात्माओं की सर्वमंगल दृष्टि में कोई भी पराया जैसा नहीं रहता। उनके स्व में सब का 'स्व' 'सोऽहं' रूप में सदाकाल मुखरित रहता है। परन्तु, इस उच्चावस्था को जो लोग अभी प्राप्त नहीं कर सके हैं, पर उनके मन में इस महान उच्च स्थिति के प्रति गहरी आत्मीयता एवं उत्कृष्ट अभिलाषा है, उनके सामने कर्मचक्र एक बड़ी दुविधाग्रस्त स्थिति उत्पन्न कर देता है। धर्म और दर्शन के चिन्तन-क्षेत्र में यह विवादास्पद प्रश्न है कि आत्मा की शक्ति महान है, या कर्म की शक्ति? कौन अजेय है इन दोनों में? अधिकतर लोगों ने कर्म-शक्ति को अजेय मान लिया है। उनका कहना है कि कर्म बलवान हैं, इतने बलवान् कि उन्हें ध्वस्त नहीं किया जा सकता। कुछ भी करो अन्ततः उन्हें भोगना ही पड़ता है। भोगे बिना कथमपि छुटकारा नहीं है और जीवन-यात्रा के लिए वर्तमान में जो कर्म करते हैं, उनकी बन्ध शक्ति भी भयंकर है, उन्हें कैसे भोगा जाएगा? उनसे कैसे छुटकारा होगा? इस प्रकार प्रश्नों का एक ऐसा अम्बार खड़ा हो जाता है, जो मानव को दुविधाग्रस्त मनःस्थिति में उलझा देता है, फलतः दुर्बल चेतना का मानव आत्मा की अपराजित अनन्त शक्ति के प्रति श्रद्धावान नहीं हो पाता। कर्म-बन्धन की समस्या सचमुच ही बहुत विकट है। यह बड़ा ही गंभीर एवं व्यापक प्रश्न है। दर्शनशास्त्रों की बहविध जटिलताओं ने समाधान के बदले उसे और अधिक उलझा दिया है। कुछ महानुभवों ने तो इसे इतना अधिक उलझाया है और मान लिया है कि मानव की कर्म-बन्ध से कभी मुक्ति हो ही नहीं सकती। कर्म-बन्धन से मुक्त होने की बात एक वह दिवा स्वप्न है, जिसका यथार्थ में कुछ भी अर्थ नहीं है। परन्तु, आत्म शक्ति के महान पुरस्कर्ता एवं उपदेष्टा श्रमण भगवान् महावीर ने इस प्रश्न के समाधान में कहा है कि कर्म की अपेक्षा आत्मा की शक्ति ही महान् है । अतः साधक कर्म-बन्धन से मुक्त हो सकता है। माना कि कर्म बहुत शक्तिशाली है, परन्तु इतना नहीं कि वह आत्मा की तेजस्विनी ऊर्जा को सदा-सर्वदा के लिए बांध कर रख सके, उसे बन्धन से मुक्त न होने दे। वस्तुतः कर्म क्या है ? और वह क्यों है ? उक्त कर्मपाश के मूल में व्यक्ति का अपना ही अज्ञान है। वह अपने अज्ञान के कारण ही उसमें बंधता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि व्यक्ति जैसे अज्ञान से कर्म बाँधता है, वैसे ही विवेक-ज्ञान के द्वारा बड़े ही सहज रूप से कर्मपाश से मुक्त भी हो सकता है। आत्मा में दोनों ही शक्तियाँ है--बन्ध की भी और मुक्ति की भी। सूर्य स्वयं बादलों का निर्माण ३२ सागर, नौका और नाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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