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________________ महामानव मानव सृष्टि को नयी दृष्टि देते हैं और बन्धन-मुक्ति की दिशा मे उसे साहस के साथ अग्रसर करते हैं। वस्तुतः वही मानवता की भावी नियति की आशाएँ और संकल्प होते हैं। और तब जिस प्रकार सूर्य भले और बुरे सभी पर समान रूप से अपनी उज्ज्वल किरणों को प्रसारित करता है, उसी प्रकार वे धरती पर की अखिल मानव जाति की सभी सन्तानों पर समभाव से अपनी स्नेहपूर्ण दयालुता की अजस्र वर्षा करते हैं। मानव ही क्यों, प्राणिमात्र पर उनके करुणामृत की वर्षा होती है, जो जन्म-जन्मान्तर के ताप को शमन कर एक अनिर्वचनीय शान्ति प्रदान करती है। यह देश अपने इतिहास के आदि काल से लेकर आज तक इसी महान आदर्श का पोषक रहा है। जब हम मोहन-जोदड़ो और हड़प्पा के पुरातन काल से लेकर इस आधुनिक काल तक के प्रतीकों, मूर्तियों और अन्य अवशेषों को देखते हैं, तब हमें उस जनकल्याणी-परम्परा की स्मृति हो आती है, जो मनुष्य अपने में आत्मा की सर्वश्रेष्ठता स्थापित कर लेता है और भौतिकता की अपेक्षा आध्यात्मिकता को महत्त्व देता है, वही आदर्श मनुष्य है। इसी आदर्श ने हमारे देश के धार्मिक एवं सामाजिक जगत् को सहस्राधिक शताब्दियों से अनुप्राणित कर रखा है। भगवान् महावीर ऐसे ही एक भगवदात्मरूप महान् आदर्श पुरुष थे। कर्मबंधन से मुक्ति के लिए और आत्म-शक्ति से परिचय के लिए उनके द्वारा जो दिव्य सन्देश प्रसारित हुए हैं, यदि उन्हें दृढ़ निष्ठा एवं श्रद्धा के साथ जीवन में उतारा जाए, तो आज का अधमाधम स्थिति में गिरा हुआ मानव भी श्रेष्ठता के उच्चतम आदर्श पर पहुँच सकता है। आज विश्व एक नये जन्म की प्रसव-पीड़ा को भोग रहा है। हम सबका लक्ष्य 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' के आदर्श पर स्व और पर का सर्वोदय है, और इस प्रकार 'एगे आया' के रूप में एक अखण्ड विश्व है। परन्तु आज के हमारे युग का लक्ष्य सर्वमंगल एकता नहीं, विभेद बन गया है। आज के तथाकथित दो विश्व के ढाँचे में हममें से कई लोगों के लिए यह प्रलोभन है कि हम एक को गलत और दूसरे को सही समझें। और जिसे गलत समझें, उसका हर बात पर प्रत्याख्यान करें। स्पष्टतः यही वह दारुण अवस्था है, जिसके कारण विभिन्न प्रकार की मायावी एवं आसुरी शक्तियाँ उभर रही हैं और आध्यात्मिक मूल्यों का लोप होता जा रहा है। अतएव ऐसे संकटकाल के साधकों के लिए आवश्यकता इस बात की है कि वे सदाचार के सर्वमान्य शाश्वत सिद्धान्तों का अनुसरण करते हए अपनी सुप्त आत्म-शक्ति को जाग्रत करें और सत्य के विभिन्न पहलुओं को अनेकान्त की समतामूलक समन्वयदृष्टि से स्वीकारें। क्योंकि इस अशान्त भू-ग्रह के इतिहास में शायद ही कोई ऐसी शताब्दी गुजरी हो, जिसने हमारे सामने चुनौतियाँ न रखी हों। वस्तुत: इतिहास परिवर्तन की एक शाश्वत प्रक्रिया है, इस सत्य को हृदयंगम कर हमें अपने अंतःकरण में भय और मृत्यु के आवेगों पर विजय प्राप्त करके जीवन का सर्वतोमुखी मंगल-ध्वज लहराना चाहिए। निर्णय का क्षण उपस्थित है, अतएव व्यर्थ के तर्कवाद और भोगवाद को तिलांजलि दे कर आत्माभिमुख अन्तर्यात्रा करनी होगी। अस्तव्यस्त एवं अव्यवस्थित विचार के इस अनात्मवादी भोगपरायण वातावरण में मानव-जाति की श्रेष्ठतम परम्परा की रक्षा तभी हो सकती है, जबकि आत्म-शक्ति के तेज से काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, घृणा और स्वार्थपरता की आसुरी वृत्ति एवं प्रवृत्ति पराभूत होगी। ___ आत्मा की महान् मंगलमयी शक्ति का अभी इस वर्तमान और अनागत भविष्य में जो अनुभव करेंगे, वे ही थोड़े से लोग इस संसार की कटुता को दूर करने में सहायक सिद्ध होंगे। इसलिए अच्छेद्य एवं अभेद्य आत्मतत्त्व की इस महान् शक्ति का महत्व समझना चाहिए, जो चिदात्मा के समस्त मायापाशों को छिन्न-भिन्न कर देती है और तमस् से मुक्त कर उसे ज्योतिर्मय बना देती है। ३४ सागर, नौका और नाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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