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हैं। उनका कहना है कि दृष्टि की शुद्धि के बिना 'स्व' या 'पर' किसी भी द्रव्य या पदार्थ अथवा तत्त्व का सम्यक्ज्ञान नहीं हो सकता। कोई भी वस्तु हो, कोई भी आगम-शास्त्र हो, किसी भी महापुरुष के वचन हों, उनका यथार्थ मर्म उसी के अन्तर में प्रकाशमान होता है, जिसकी दृष्टि शुद्ध है, आग्रह-दुराग्रह से रहित है। वस्तु, वस्तु है। शास्त्र, शास्त्र हैं। उसे ग्रहण करने की ,देखने की दृष्टि अगर सम्यक् है, तो वह उसके लिए सम्यक् रूप में परिणत होते हैं। अन्यथा आग्रहग्रहिल मानव का अशुद्ध मन और अधिक असत्य के सघन अन्धकार में भटक जाता है। शास्त्र प्रकाश भी है, और अन्धकार भी। शुद्ध दृष्टि के लिए प्रकाश है, तो अशुद्ध दृष्टि के लिए अन्धकार।
अतएव आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य की जिज्ञासु वृत्ति में विशुद्ध भावना प्रस्फुटित हो। उच्चतर अवस्था की जो भी महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं, वे साधक से यह प्राथमिक अपेक्षा रखती हैं कि वह तमाम पूर्वाग्रहों से मुक्त हो और सत्य के प्रति समर्पित विशुद्ध भाव चेतना की सामग्रिक शक्ति को प्राप्त करे। जहां पूर्वाग्रहों के रंग मन-मस्तिष्क को आच्छादित किये रहते हैं, जहाँ चिन्तन में कुछ पूर्व धारणायें अवस्थित रहती हैं, वहाँ उन्हीं के अनुरूप वस्तु का स्वरूप परिलक्षित होता है। सत्य को प्राप्त करने के लिए इस प्रकार की सभी अहं भावनाओं का साधक को परित्याग करना चाहिए। जहाँ ऐसा नहीं हो पाता है, वहाँ उसी का दर्शन होता है जिसकी एक भाव-मूर्ति मन में पहले से अवस्थित रहती है। ऐसा आग्रही साधक सत्य को प्राप्त करने में, चैतन्य की स्वानुभूति को भाव-समुद्र के अतल तल में ले जाने में असमर्थ रहता है। इतिहास साक्षी है कि ज्ञान के महासागर के पास जाकर भी अशुद्ध दृष्टि के लोग कुछ नहीं प्राप्त कर सके। भगवान् महावीर जैसे विराट् ज्योतिर्मय महापुरुष के सम्पर्क में छह वर्ष तक गोशालक रह कर भी उस महाप्रकाश से कुछ भी प्राप्त नहीं कर सका। उसका अन्तर्-मन क्रोध, अहंकार, द्वेष, घृणा, नफरत, वैर एवं प्रतिशोध की आग में ही जलता रहा। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि उसकी पूर्वाग्रह-ग्रस्त मानसिक प्रवृत्तियाँ परिष्कृत नहीं हो सकी। अहं आदि विकारों के विजित नहीं हो जाने के कारण वह घृणा एवं द्वेष के सिवा अन्य कुछ भी नहीं प्राप्त कर सका। और तो और, एकदिन तो उसने अपने परमाराध्य महान् गुरु को भस्म करने के लिए घृणित प्रयत्न भी किया था। यही हाल जमाली का हुआ। वह वीतराग महावीर के श्रीचरणों में रहकर भी श्रेयस् तक नहीं पहुंच पाया। इतिहास में यत्र-तत्र इस प्रकार के सहस्राधिक उदाहरण आज भी उपलब्ध हैं।
शान्ति के महान् अग्रदूत तथागत बुद्ध का शिष्य देवदत्त भी इसी प्रकार के भयंकर पूर्वाग्रहों में उलझकर रह गया। बुद्ध जैसे महापुरुष के समीप रह कर भी दृष्टि की मलिनता के कारण वह अभीष्ट महत् की उपलब्धि नहीं कर सका। इतना ही नहीं, उसने उस प्रबुद्ध चेता को मारने की भी विभिन्न चेष्टाएं कीं। ऐसा क्या था, जिसके कारण महापुरुषों के सान्निध्य में रहकर भी इनकी अहंजन्य उदंडता समाप्त नहीं हो सकी और वे विनम्र भाव से शुद्ध सत्य के अन्वेषी नहीं बन सके। इन सारी बातों की पृष्ठभूमि में एक ही बात परिलक्षित होती है कि इनकी दृष्टि में व्यामोह का तमस् था, भावनाओं में मलिनता थी और उनके अन्तश्चक्षुओं पर पूर्व धारणाओं के रंगीन चश्मे चढ़े थे।
___ इन सारी बातों के पश्चात् सर्वतोभावेन एक बात स्पष्ट हो जाती है कि जब हम स्वयं के पूर्व-प्रतिबद्ध आग्रह को सूत्र बनाकर चलते हैं, तब हम अनन्त ज्योतिर्मय सत्य को उपलब्ध कर पाने में असमर्थ हो जाते हैं। इसलिए भगवान् महावीर सत्य के पक्षमुक्त शुद्ध स्वरूप को देखने की विशाल एवं समुन्नत शक्ति प्राप्त करने के लिए पूर्वाग्रहों के परित्याग की बात कहते हैं। बाह्य पदार्थों का अल्प या पूर्ण त्याग महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण है त्याग-वृत्ति की भावना। जब तक दृष्टि आग्रहमुक्त नहीं होती, तब तक सत्य को अनुभूतं कर पाना असंभव हैं। इसी परिष्कृत तत्त्वमयी शुद्ध दृष्टि को भगवान् महावीर सम्यक्-दर्शन कहते हैं।
यह सत्य है कि शास्त्र, सत्य के साक्षात् द्रष्टा महापुरुषों की वाणी के संकलन है, परन्तु यदि उनका अध्ययन किसी प्रकार के आग्रह को मन में रख कर किया जाता है, तब सत्य उपलब्ध नहीं होता, प्रत्युत उसके स्थान पर परिणामस्वरूप तथाकथित विभिन्न पंथों के चक्रव्यूह निर्मित हो जाते हैं। जैन-परम्परा में भी इस प्रकार के बहुत से पन्थों का निर्माण हो गया है। ये सभी पंथ भगवान् महावीर का नाम लेते हैं। उन्हें अपना आराध्य देव मानते हैं। बात-बात पर उनके द्वारा प्ररूपित शास्त्रों को सामने रखते हैं। परन्तु विडम्बना की बात यह है कि इन तमाम पंथों में परस्पर बेतुका संघर्ष छिड़ा हुआ है। और दुर्भाग्य है कि वे सारे के सारे संघर्ष भगवान के नाम
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सागर, नौका और नाविक
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