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________________ आचार्य उमास्वाति कहते हैं-"तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ” अर्थात् तत्त्वरूप अर्थ पर श्रद्धा करना सम्यक् दर्शन है। दर्शन के इस महापण्डित ने प्रस्तुत लघुकाय एक सूत्र में जितनी गहरी बात कह दी है, वह गंभीर विचार के योग्य तो है ही, साथ-साथ दार्शनिक चिन्तन की महत् उपलब्धियों की अर्थवत्ता का भी दिग्दर्शन कराती है एवं साधना के प्रस्थानविन्दुओं का स्पष्टीकरण करती है। दर्शन का महान् आचार्य इस सूत्र के माध्यम से कहता है कि सत्य का जो तत्त्वरूप अर्थ है, उसका निष्ठापूर्वक सम्यक् रूपेण दर्शन करना ही जीवन का प्रथम श्रेयस् है । अनन्त अनादि काल से ही मनुष्य सत्य की महत् उपलब्धियों का अन्वेषण करता आ रहा है । यह उसकी सत्य एवं परम सत्य के प्रति एक सहज जिज्ञासा है। परम चैतन्य की उपलब्धि की दिशा में एक आन्तरिक प्रेरणादायक शक्ति है। प्रतिक्षण परिवर्तनशील जगत् की उत्पत्ति, विकास और विनाश के मध्य हो रही अदृश्य लीला के संबंध में मानव की वृत्ति एवं प्रवृत्ति प्रारंभ से ही उत्सुक रही है। वह विश्व के सारे रहस्वावृत परिवेश के कार्य-कारण संबंधों, गूढ़ रहस्यों और विवेचना की पद्धतियों के बारे में एक सहज आन्तरिक अपनत्व की भावना रखता है और उनके समस्त आयामों को पकड़ लेना चाहता है। उसकी जिज्ञासा क्षितिज के पार -दूर और बहुत दूर तक की तमाम सीमाओं और संभावनाओं को अपने ज्ञान की इयत्ता की परिधि में आबद्ध कर लेना चाहती है । मनुष्य के अन्तर्मन की इस तीव्र आकांक्षा ने ही उसे सत्यान्वेषण की दिशा में अनवरत गतिमान बनाया और जिज्ञासा के विभिन्न पहलुओं को अपनी मनस्- प्रज्ञा में आबद्ध करने का प्रयत्न किया है । सम्पूर्ण चराचर में सत्य विद्यमान है, यह जो चेतना की प्रखर-दीप्ति अणु-अणु को प्रकाश से आप्लादित कर रही है, वह मानव के समग्र कार्य-व्यापार को स्वच्छ जल की भांति निर्मलता प्रदान कर रही है। इसे हम प्रज्ञा का बोधमय संसार कह सकते हैं। विभिन्न युगों में विभिन्न महापुरुषों ने, चिन्तकों ने, सम्पूर्ण ज्ञान को प्राप्त करने का विश्व के तमाम सत्यों को जीवन में उपलब्ध करने का सर्वेचा सर्व मंगल भाव उत्पन्न किया है। मन, वाणी और कर्म के परम तेजस् की ओर केन्द्रित किया है। मनुष्य की जो चैतन्य अवस्था है, चिन्तन के जो ऋजु संकल्प हैं, वे मनुष्य को तर्क और भाव दोनों ही प्रकार की मनीषाओं से समन्वित करते हैं और एक महिमामयी स्पन्दन से मानवीय भाव- पुष्प वृक्ष का सौरभ दूर देशान्तरों तक पहुँचा आने का गुरु-कार्य शब्द समीर के हाथों सौंपते हैं। सत्य के प्रति होने वाले उक्त आग्रह ने एक ओर जहाँ संकीर्ण सीमाएँ खड़ी की हैं, वहीं आकाश की भांति इसका विस्तार भी किया है । अपनी प्रज्ञा की कसौटी पर जगत् के तमाम रहस्यों को अनुभूति में न समा पाने वाली अपने तर्क की चादर पर तमाम मन्तव्यों को पसार कर एक-एक रेशे को उधेड़ कर मनुष्य जान लेना चाहता है। वस्तुतः यथार्थ सत्य क्या है? विभिन्न दृष्टियों से शास्त्रों के विभिन्न द्वारों से, धर्माचायों के विभिन्न अनुभूत तथ्यों से वह अपने मस्तिष्क की प्रयोगशाला को परिचित कराना चाहता है और इस बिन्दु पर आकर ज्ञान की भाव समृद्धि के साथ चिन्तन के सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित हो जाना चाहता है। आर्यावर्त की पुष्प भयी धरती की यह वह महान् ऊर्जा है, जिसकी उष्मा सहस्राब्दियों से मानव के अन्तर की अनन्त शक्ति को ज्ञात कर लेने का सोऽहं भाव विश्व वाङ्मय की चेतना में प्रसारित कर रही है । भारतीय धर्माचायों ने विभिन्न दृष्टियों से सम्यक् रूपेण सत्य को अनुभूत कर लेने का जो मार्ग बतलाया है, उसमें जो सबसे बड़ी बात सामने आती है, वह है दृष्टि की विशुद्धता, मनश्वेतना की ऋजुता, चित्त के एकाग्रीकरण की अखण्ड एवं निर्द्वन्द्व धारणा विश्व में जो कुछ भी यथार्थ है उसे जान लेना इतना सहज नहीं है, जितना कि साधारणतया लोग समझ बैठते हैं । विश्व के रहस्यों को जानने के लिए, वस्तु के यथार्थ स्वरूप से परिचित होने के लिए दृष्टि की पक्ष-मुक्तता, समुन्नतता, चिन्तन की एकाग्रता एवं मन को निर्मलता नितान्त आवश्यक है। जब तक शुचिता के ये सारे स्वरूप मनुष्य को उपलब्ध नहीं होंगे, तब तक सम्परूपेण यथार्थ ज्ञान नहीं होगा । अतएव हर जिज्ञासु को इस दिशा में गतिमान होने के पूर्व अपने चिन्तन का परिष्कार कर लेना चाहिए, अन्यथा हृदय में विशुद्ध भाव उत्पन्न नहीं होगा । और जहाँ विशुद्ध भाव नहीं है वहाँ शुद्ध सत्य की अनुभूति भी असंभव है । 'स्व एवं पर' को जानने की जिज्ञासा के संबंध में भगवान् महावीर दृष्टि के परिष्कार की बात कहते अन्तर्यात्रा का प्रस्थान बिन्दु : १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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