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________________ करता रहा है, करता रहेगा। वह किससे नहीं लड़ा है ? जग ने किस महापुरुष को, किस महानारी को छोड़ा है ? पर कर्मवीर आत्माओं ने कब इन की परवाह की है ? बस, इनकी ओर ध्यान ही नहीं देना है। ध्यान देना है, अपने गन्तव्य लक्ष्य की ओर । जग से पूछने की बात नहीं है, मन से पूछ लेने की बात है । सर्वप्रथम अपने मन से पूछ लेना है कि कर्तव्य के प्रति तेरा दिल साफ है कि नहीं, तेरा इरादा पाक है कि नहीं। कर्म के प्रति तेरी निष्ठा है कि नहीं । यदि तेरा कर्म आत्म-हित की दिशा में, जन हित की दिशा में समयोचित है और तू उसे पवित्र संकल्प से करना चाहता है, तो तू निर्भय और निर्द्वन्द्व अपने पथ पर चल पड़ । फिर तुझे किसी से डरने की, घबराने की कोई जरूरत नहीं है । कहा था कभी किसी ने इसी सन्दर्भ में- "दिल साफ तेरा है कि नहीं, पूछले जी से, फिर जो कुछ भी करना हो, कर तू खुशी से, घबरा न किसी से ।" कर्म-योगी महावीर : वैशाली क्षत्रियकुण्ड का राजकुमार वर्धमान महावीर तीस वर्ष की मादक तरुणाई में सत्य की खोज के लिए महलों से निकल पड़ा। कभी वैभारगिरि जैसे पर्वतों के ऊँचे शिखरों पर, कभी सप्तपर्णी जैसी अन्धकाराच्छन्न गहरी गुफाओं में, कभी भयंकर निर्जन वनों में, कभी वेगवती सरिताओं के तट पर ध्यान लगाता रहा, आत्म-निरीक्षण करता रहा । साढ़े बारह वर्ष की सुदीर्घ तपः साधना के बाद ऋजुबालिका नदी के तट पर अन्तर्लीन हुए, तो कैवल्य प्राप्त किया। कैवल्य बोध हुआ कि तत्काल ही प्राप्त सत्य का उपदेश दिया । पर किसी ने कुछ ग्रहण नहीं किया । अस्तु, रात्रि में ही चलकर प्रातः पावापुरी के महासेन वन में पहुँचे । समवसरण लगा। असत्य का निराकरण करते हुए निर्भय भाव से सत्य की स्थापना की। श्री इन्द्रभूति गौतम जैसे ग्यारह महामनीषी उच्चवंशीय ब्राह्मण विद्वानों ने दीक्षा ग्रहण की। इनके साथ ही अन्य चार हजार चार सौ ब्राह्मणों ने भी आती प्रव्रज्या स्वीकृत की। एक ही दिन में इतनी बड़ी जनसंख्या में जीवन परिवर्तन का दूसरा उदाहरण आसपास के इतिहास में अन्यत्र कहीं नहीं मिलता । यह सब भगवान् महावीर के कर्म योग की देन है। यदि वे केवलज्ञान पाकर शान्त बैठ जाते कि बस, मुझे जो पाना था वह पा लिया । अब मुझे क्या करना है इधर-उधर की भाग-दौड़ से ? शान्ति से जीवन गुजारना चाहिए। तो आप ही बताइये, पावापुरी में यह महत्वपूर्ण धर्म-क्रान्ति होती ? सत्य का इतना व्यापक प्रचार होता ? असत्य का कुहासा छटता ? स्पष्ट है, ऐसा कुछ भी नहीं होता । केवलज्ञान की प्राप्ति से पूर्व सत्य की तलाश में साढ़े बारह वर्ष तक वन-वन घूमते रहे और जब केवलज्ञान हो गया तो लगातार तीस वर्ष तक एक देश से दूसरे देश, एक नगर से दूसरे नगर, एक गांव से दूसरे गांव प्राप्त सत्य की निर्द्वन्द्व घोषणा करते रहे। कभी गंगा के इस पार तो कभी गंगा के उस पार, कभी यमुना और गण्डकी के इधर तो कभी उधर, कर्मयोगी महावीर हजारों भिक्षु और भिक्षुणियों के संघ के साथ विहार करते रहे । जनता को सत्य का उपदेश देते रहे। कभी वैशाली तो कभी राजगृह, कभी चम्पा तो कभी कौशाम्बी, दूर-दूर के नगरों को स्पर्श करते रहे, विशाल जल धाराओं को नौकाओं से पार करते रहे। कितना तीव्र वेग था उनकी धर्म-चेतना में। आगे-आगे महावीर हैं । पीछे-पीछे गौतम चल रहे हैं, सुधर्मा चल रहे हैं, हजारों भिक्षु चल रहे हैं। एक समय की कुसुमकोमला राजकुमारी चन्दना और मृगावती जैसी रानियाँ भी भिक्षुणी बनी हुई हैं । और वे हजारों भिक्षुणियों के साथ कदम-कदम प्रभु महावीर का अनुगमन कर रही हैं । यह था कर्मयोग का जीवित दर्शन । द्वार-द्वार सच्चे धर्म की ज्योति जलाई जा रही है । कहीं अपमान मिलता है, तो कहीं सम्मान मिलता है । कोई चिन्ता नहीं मान-अपमान की । आखिर में निर्वाण का समय है। दो दिन से निरन्तर निरन्न एवं निर्जल उपवास है । और महावीर की निरन्तर सोलह प्रहर से वाग्धारा बह रही है। दिन में भी रात में भी सतत धारा। एक-दो घंटे तो क्या, एक दो क्षण का भी विश्राम नहीं। इसे कहते हैं जीवन ! इसे कहते हैं कर्त्तव्य के प्रति समर्पण । इसे कहते सत्य के प्रति समर्पित श्रद्धान । बस, इसी की अपेक्षा है जीवन-निर्माण के लिए। वह दिन धन्य होगा, जिस दिन हमारे जीवन में भी कर्मयोग का यह महानाद गूंजेगा । हम भी सत्य के प्रति, कर्तव्य के प्रति इसी तरह समर्पित होंगे। अबाध गति से हमारी कर्मधारा भी इसी तरह प्रवाहित होगी। और, जब ऐसा कुछ होगा तो फिर क्या कमी रहेगी ? ज्योतिर्मय कर्म-योग २२५ Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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