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________________ भारतीय भूतल पर चहुँ ओर अपनी विजय पताकाएँ फहरा दीं। हजारों वर्ष बीत गए हैं, पर आज भी लाखोंलाख लोग उस महान् कर्मयोगी श्री कृष्ण के भक्तिपूर्ण गीत गाते हैं, श्रद्धा से पूजन-अर्चन करते हैं । विरोधियों ने विरोध करने में कसर नहीं छोड़ी, उन पर स्यमन्तक मणि की चोरी आदि के लांछन भी लगाए गए। भरी सभा में शिशुपाल जैसों ने उनको गालियां दीं। दुर्योधन जैसों ने उन्हें मूर्ख ग्वाला कहकर पुकारा, पर क्या इससे कृष्ण का तेज धूमिल हो सका ? सूर्य बादलों में कब तक छिपा रह सकता है? सूखे घास में चिनगारी कहाँ तक दबी रह सकती है ? कृष्ण अन्धकार से बराबर लड़ते रहे, और धरती से लेकर अंबर तक प्रकाशमान होते रहे। आज भी उनका दिव्य प्रकाश करोड़ों-करोड़ जनता के मन-मस्तिष्क पर छाया हुआ है। आज भी उनकी गीता समुद्र पार के सुदूर देशों में भी गूंज रही है। गीता में श्री कृष्ण के कर्म-योग का तेजस्वी सुदर्शन चक्र आज भी गतिशील है। जीवन में सूर्य-सा तेज चाहिए, प्रकाश चाहिए पर दीपक जैसा टिमटिमाता न हो कि तेल खत्म हुआ, या हवा का कोई झोका धक्का दे गया और बेचारा दीपक बुझ गया। दीपक हवा के झोंके से बुझ सकते हैं। परन्तु सूर्यदेव, जो विश्व का दीपक है, वह तूफानी आंधियों में भी कहाँ बुझता है ? कुतर भुसत वा को भुसवा दे : जीवन में गतिशीलता बनी रहनी चाहिए। गति में भी नित्य नयी प्रगति विकसित होती रहनी चाहिए। इस गति एवं प्रगति का अर्थ यों ही आंख बंद किए दौड़ना - भागना नहीं है। इसका अर्थ है; विवेक के प्रकाश में कर्म की धारा का निरन्तर प्रवाहित रहना। बीच में बाधाएँ आ सकती है, कभी सुख की तो कभी दुःख की कभी यश की तो कभी अपयश की। किन्तु तेजस्वी जीवन को इस तरह बीच में कहीं रुकना नहीं है। पथ में कभी कांटें भी बिछे मिल सकते हैं। क्या बात है, कोर्ट साफ करो, और आगे बढ़ो। फुलवाड़ी में कहीं फूल भी महकते मिल सकते हैं । कोई बात नहीं । कुछ क्षण सुगन्ध का आनन्द भी ले सकते हैं। पर, सावधान ! आसन जमा कर न बैठ जाइए । बस, चलते रहिए फूलों के बीच में से भी और कांटों के बीच में से भी । सुख हो, दुःख हो, यश हो, अपयश हो, जय-जय हो, हाय-हाय हो, कुछ भी हो, कर्म के पथ पर बढ़ते रहिए। कर्मयोगी के लिए यह हाय-हाय भी जय-जयकार ही है। राष्ट्र के महान नेता इस हाय-हाय के बीच में ही पनपते हैं, मुर्दाबाद के नारों में ही जिन्दाबाद का मजा लेते हैं । यदि ऐसा न हुआ होता, तो आज महात्मा गान्धी और जवाहरलाल नेहरू का क्या अस्तित्व रहता ? संत कबीर मस्त प्रकृति के फक्कड़ संत थे। सत्य के प्रति सर्वात्मना समर्पित होनेवाले ऐसे ही फक्कड़ होते हैं। कबीर जैसे निर्भय, असत्य को ठोकर लगाकर बात करनेवाले साधक विरले ही होते हैं । जो लोग इधर-उधर की निन्दा - चुगली से, अपयश से, अपमान से डर कर कर्तव्य पथ छोड़ बैठते हैं, उनको सम्बोधित करते हुए कबीर कहता है--" भाई भगवान् का स्मरण करो उसके बताये पथ पर चलते जाओ। यदि कुछ लोग निन्दा करते हैं तो करने दो। तुम्हारा क्या बिगड़ता है? राजपथ पर हाथी अपनी मस्त चाल से चलता जा रहा है। अगल-बगल में कुत्ते भौंक रहे हैं। पास आने की हिम्मत किसी की नहीं है। दूर खड़े भौं-भौं का शोर मचा रहे हैं। क्या इन कुत्तों के भौंकने से हाथी अपनी चाल छोड़ देता है ? कुत्ते तन का सारा जोर लगाकर भौंकते रहें । गजराज तो खूब मस्ती में झूमता हुआ, सूंड फटकारता चल रहा है। कुत्तों के बीच में हाथी बनना ही होगा। अन्यथा, कुत्ते चलने नहीं देंगे। कर्मक्षेत्र में आनेवाले यश-अपयश के, निन्दा-स्तुति के द्वन्द्व ही कुत्ते हैं। ये तो भौंकते ही हैं। भौकने दो इन्हें तुम तो अपनी निर्धारित मंजिल की ओर बढ़ते रहो। मंजिल पर पहुँच कर ही विश्राम लेना है, बीच में नहीं" २२४ ―― "लू तो राम सुमर जग लड़वा दे, हाथी चलत है अपनी गति से, कुतर भुंसत वां को भुंसवा दे, तू तो राम सुमर जग लड़वा दे।" जग लड़ता है, झगड़ता है। लड़ने दे भाई जग को उसका तो काम ही लड़ना है। वह यही काम सागर, नौका और नाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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