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________________ कोण चिन्तन प्रधान हो। उसकी वैचारिक अर्थवत्ता जोवन के नित्य नूतन नये आयामों का अन्वेषण करे। युगीन संदर्भो में जीवन के मान-मूल्यों का अन्वेषण अगर इस दृष्टि से होता रहा, तो हमारी सांस्कृतिकपरम्परा और श्रमण-परम्परा की उदार मनोवृत्तियाँ कभी भी समाप्त नहीं हो पायेगी। विश्व वाङमय के विशाल वृक्ष पर श्रमण-संस्कृति का महान् उद्घोष अगर अक्षुण्ण रह पाया है, तो इसका मूल कारण यही है कि इसने सत्य को स्वीकारने में कभी भी मिथ्यात्व का सहारा नहीं लिया। नानाविध झंझावातों को अनवरत झेलते रहने के वावजूद, अगर जैन-धर्म आज भी अपनी अस्मिता को पवित्रता की समस्त ऊंचाईयों के साथ जीवित रख सका है. तो उसका एक मात्र कारण यही है कि इसने जीवन के हर पहलू को समकालीन दृष्टि चेतना से समन्वित हो कर देखा एवं परखा है। आदि तीर्थकर भगवान ऋषभदेव से लेकर आज तक की श्रमण-संस्कृति की जो प्रवहमान धारा है, वह सत्य के विशाल एवं उन्मुक्त दृष्टि को आत्मसात् करने के कारण ही नैरन्तर्य स्थापित किये हुए है। विश्व-मानव की चेतना का यह जो महाउद्घोष श्रमण-संस्कृति की सुदीर्घ परम्परा में सुनाई पड़ता है, उसकी पीठिका पर ऐसा नहीं है कि उसे बहुबिध आलोचनाओं का शिकार न होना पड़ा हो, परन्तु बावजूद इसके वह आज भी कलकल निनादिनी सरिता की तरह प्रवहमान है। हिमगिरि के उत्तुंग शिखर की तरह अडिग-अविचल रूप से अवस्थित है। श्रमणसंस्कृति की यह भाव-धारा मानवीय मूल्यों को जीवन की गति के नये आयाम देती है। ज्ञान की समस्त ऊंचाइयों से भारतीय मनीषा को समृद्ध करती है। चिन्तन के विशाल एवं सुदीर्घ पृष्ठों पर भगवान ऋषभदेव से ले कर तीर्थंकर महावीर तक की जो अविराम धर्म-यात्रा की कथा है, वह सृजनात्मक तत्त्वों का पोषण करती है और विकास के अनेक कालातीत अध्यायों को जोड़ती है। ___मैं प्रारम्भ में कह आया हूँ कि आदिम मानव की मनोवृत्तियाँ कितनी सहज एवं अज्ञान-जन्य थीं। उसे श्रमशक्ति से परिचय भगवान् ऋषभदेव ने किस प्रकार कराया था। तब से ले कर आज तक की वह श्रमण-यात्रा सिर्फ भारतवर्ष की ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण वसुधा को एक मधुर आह्लाद से परिपूरित करती रही है एवं मनष्य को बिखरने से बचाती रही है। भगवान् ऋषभदेव से लेकर आज तक के हुए तमाम परिवर्तनों में श्रमण-संघ ने कहीं से अपनी पवित्र भावनाओं को खोया नहीं है, बल्कि प्राप्त करने की उदात्त अभिलाषा ही इसके मन्तव्यों एवं परिवर्तनों में मूल कारण रही है। हम इन तमाम परिवर्तनों में कही से भी स्खलन की संभावनाओं को नहीं देखते हैं, बल्कि उसके समकालीन संदर्भो में आने वाले औचित्य पर विचार करते हैं। समयोचित परिवर्तन विकास के मार्ग में कहीं भी बाधक नहीं है, धर्म एवं संस्कृति के मार्ग में अबरोधक नहीं है, बल्कि वह एक अकाट्य आवश्यकता है--चिन्तन की प्रखर दीप्ति है। अगर हम इसे और भी विकसित दृष्टि से देखने का प्रयास करें, तो हमें साफ दिखाई देगा कि इन्हीं समयोचित परिवर्तनों के कारण श्रमण-संस्कृति का तपस्तेज आज भी अक्षुण्ण है। धर्म एवं संस्कृति के क्षेत्र में समस्त बाधाओं का सामना करते हुए भी वह गतिमान है। भविष्य में जब भी संततियाँ मानवीय मूल्यों पर विकसित विचार करेंगी, तब उनके समक्ष जैन-धर्म की विराट् गाथा उन्हें दिशा एवं गति निर्धारित करने में समयोचित सहायता देंगी। चिन्तन की यह एक जीवन्त प्रक्रिया है। जिस पर विचारकों ने गहरी आत्मीयता से विचार किया है और मनुष्य को विचारवान बनाया है। भगवान महावीर की अनेकन्तवादी दृष्टि एवं दार्शनिक चेतना यही तो अपनी व्यावहारिक अर्थवत्ता प्राप्त करती है और अवनि से अम्बर तक अपनी धर्म-ध्वजा फहराती है। यही वह चिन्तन-प्रक्रिया है, जिसके कारण भारतवर्ष का स्थान अनन्य है। और, वह विश्व में समादृत है । वस्तुतः श्रमण-संस्कृति कलुष के तमाम कगारों को ऋजु संकल्पों के आप्लावन के द्वारा तोड़ती है और अनेक को एक एवं एक को अनेक से जोड़ती है। समयानुसार सभी धर्माचार्य समयोचित परिवर्तन की आवश्यकता पर बल देते आये हैं। और शायद यही कारण है कि विकास की गत्यात्मकता कहीं से भी अवरुद्ध नहीं हुई है। अविद्या के त्रि-आयामी दोषों से मुक्त होने के लिए ही वस्तुतः जैनाचार्यों ने समयोचित परिवर्तन को स्वीकार १९४ सागर, नौका और नाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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