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बात नहीं है। देर करने से शुभ का रस समाप्त हो जाता है । 'कालः पिवति तद्-रसम् ।' लोग कहते हैं--देर है अंधेर नहीं। पर, मैं कहता हूँ देर स्वयं ही अंधेर है । जो भी करना है उसे समय पर कर लेना ही उत्तम विचार का फल है जो भी करना है, समय पर कर लेना चाहिए, तारिखें डालते रहना, व्यर्थ ही केस लम्बा करते जाना, कोई अच्छी बात नहीं है । 'तुरंत दान महाफल' का सिद्धान्त ही ठीक है । आज की अदालतें फैसला देने में देरी करने के कारण मजाक बन गईं हैं।
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साधना की अन्य पीठिकाओं के संबंध में भी यही बात है । इतिहास के प्राचीन पृष्ठों पर आचार परिवर्तन की अनेक कथाएँ अंकित हैं। इसे मैं आचार - कान्ति का नाम देता हूँ । किन्तु, आज आचार परिवर्तन के संबंध में कान्ति की संभावना नहीं है। में आचार परिवर्तन के संबंध में कुछ भी नहीं सोचता हूँ मैं सोचता हूँ, परम्परागत धार्मिक आचार और विधि-विधान के संबंध में आज के युग का व्यक्ति स्वयं की अपनी रुचि के अतिरिक्त बाहर के किसी दबाव से कुछ भी स्वीकार या अस्वीकार करने की मनःस्थिति में नहीं है । वस्तुतः धर्म और धार्मिक आचार साधक के अन्तर से उद्भूत होने वाला आध्यात्मिक भाव है, यह बाहर से आरोपित नहीं है। उसे आरोपित होना भी नहीं चाहिए। उसमें पूर्णतः स्वात्मरुचि और योग्यता की स्वतंत्रता होनी चाहिए आरोपित संयम, सम्यकु संयम नहीं हो सकता। आरोपित धर्म, सही अर्थ में धर्म नहीं हो सकता। आरोपित धर्म, जो कभी-कभी अधर्म से भी अधिक भयानक हो जाता है। इस दृष्टि से ही तीर्थकरों का धर्म, साधक के स्वयं चलने का धर्म है, बलात् धकेलने का धर्म नहीं है।
यही बात सत्यासत्य के विचार-क्षेत्र में भी है। सत्य के लिए भी आवश्यक है कि मान्यताओं के आग्रह कम हों, कम क्या हो ही नहीं। जो मान्यताएँ महाकाल के प्रवाह में घिस गयी है, अपना मूल्य खो चुकी है उनके दुराग्रह क्षीण होने चाहिए। भगवान् महावीर का अनेकान्तवाद विचारों के एकान्त जड़ आग्रह को शिथिल करने का ही वाद है। अनेकान्त की जितनी स्पष्ट और मूलग्राही व्याख्या होती जा रही है, उतना ही मनुष्य अधिक सभ्य एवं सुसंस्कृत बनता जा रहा है। पिछले कुछ वर्षों में साम्प्रदायिक संकीर्णताओं एवं मान्यताओं की अहम्मन्यताएँ मनुष्य को उन्मादग्रस्त कर रही थीं, पर आज वैसी स्थिति नहीं रही है। आज भिन्न सम्प्रदायों के लोग एक साथ मिल कर कुछ सोच सकते हैं, साथ-साथ रह सकते हैं। हर क्षेत्र में सहिष्णुता का विकास हुआ है और उक्त सहिष्णुता का जन्म विचारों के शिथिलीकरण, लचकीलेपन एवं उदात्तता के कारण ही संभव हो सका है। यह शिथिलीकरण अनेकान्त से भिन्न और कुछ भी नहीं हैं। अनेकान्तवाद किसी भी विचार-धारा के एक-पक्षीय आग्रह वृत्ति का निषेध करता है और उसके अनेक पक्षी विचारों को स्वतंत्र दृष्टि से देखने का मार्ग बताता है।
एक युग था, जब धार्मिक मान्यताओं एवं धारणाओं को विश्वास और परम्परा के नाम पर स्वीकार किया जाता था किन्तु वे आज तर्कसम्मत आलोचना के द्वार पर खड़ी है। आज हर मान्यता की मात्र ऐतिहासिक ही नहीं, सामाजिक मीमांसा भी होती है। उसे तर्क एवं विज्ञान की कसौटी पर कस कर देखा जाता है। अध्ययन और चिन्तन की दृष्टि का यह पैनापन सर्वत्र व्याप्त हो चुका है। इसे युगीन संदर्भों और तात्कालिक मान्यताओं के परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है । परन्तु, जो सत्य है, वह विभिन्न आयामों में अपनी अस्मिता का अन्वेषण करता है । और यही कारण है कि सत्य सर्वदा भय रहित होता है। जहाँ भय है, वहाँ सत्य कदापि अपना स्थान प्राप्त नहीं कर सकता । सत्य की विमुक्त दृष्टि आलोचना - प्रत्यालोचना की परवाह नहीं करती। क्योंकि वह एक सार्वजनीन शक्ति है, उसे विश्व की कोई भी शक्ति चुनौती नहीं दे सकती। वस्तुतः देखा जाय तो सत्य इन मार्गों से गुजर कर अपने स्वरूप को नित्य निरन्तर उदात्त एवं विराट बनाता है । किन्तु देश-काल की परिधि में आवद्ध जो सामयिक सत्य होते हैं, उन्हें सनातन सत्य मान लेने की भ्रान्ति हो उसे आलोचना का शिकार बनाती है और उससे उत्पन्न होने वाली परिस्थितियां कटु मंतव्यों को उजागर करती है। इन्ही परिस्थितियों में तथाकथित धार्मिक और परम्परावादी लोग व्यग्र हो उठते हैं और उनमें जड़ता छा जाती है । सत्य यदि वस्तुतः सत्य है, तो उसे भय कैसा ? " सत्ये नास्ति भयं क्वचित् ।"
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विचार चर्चा, शास्त्रचर्चा और स्वाध्याय के बिना धर्म - शास्त्र अध्यात्म एवं परम्परा को समझना नितान्त असम्भव है । हम अतीत में क्या थे । और अब क्या हो गये हैं ? इसे समझे एवं जाने बिना यह सब स्पष्ट नहीं हो सकता और सामाजिक प्रबुद्धता जागृत नहीं हो सकती। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि हमारा सामाजिक दृष्टिदेशकालानुरूपं धर्म कथयन्ति तीर्थंकरा
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