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आग्रहमूलक धारणा में ही समग्र धन-जन-शक्ति केन्द्रित हो जाती है एवं जीवनस्पर्शी उदात्त आदर्श विवेक की आंख से ओझल हो जाते हैं, तो समय पर उनका परिष्कार करना नितान्त आवश्यक हो जाता है। उन सारी समस्याओं को समय के परिप्रेक्ष्य में ही देखना चाहिए और उचित निर्णय लिया जाना चाहिए। क्योंकि एक समय का अच्छा माना जाने वाला निर्णय परिवर्तित समय में पुन: परिष्कृत अथवा रूपान्तरित होते रहने की अपेक्षा रखता है।
जीवन का कोई भी क्षेत्र क्यों न हो--समय पर सब में परिवर्तन की आवश्यकता है। धार्मिक-क्षेत्र की ही तरह सामाजिक क्षेत्र भी परिवर्तन से अलिप्त नहीं रहा है। सूदूर अतीत में नारियों में परदा-जैसी कोई चीज नहीं थी। एक समय आया, जब कि उसकी आवश्यकता महसूस हुई और आज फिर वह समय आ गया है, जबकि लोग परदे को अनावश्यक समझने लगे हैं। इसी प्रकार दहेज, मृत-भोज, बाल-विवाह एवं विधवा-विवाह तथा स्त्री-शिक्षा आदि परम्पराएँ विधि से निषेध में और निषेध से विधि में परिवर्तित होती रही हैं। ये शास्वत नहीं, युग-धर्म के तत्त्व हैं, इन्हें परिवर्तन के चक्र में यथावसर रूपान्तरित होना ही पड़ता है।
धार्मिक-क्षेत्र में गुरु हो अथवा आचार्य तथा सामाजिक क्षेत्र में कोई नेता या हो मुखिया, उन्हें संघ एवं समाज के वर्तमान तथा भविष्य की अपेक्षाओं का सतत पर्यवेक्षण करते रहना चाहिए। उन्हें निरन्तर उचितअनुचित का विचार करते रहना चाहिए। उन्हें निरन्तर देखना है कि क्या आवश्यक है, क्या अनावश्यक है। जो ठीक है, उसका संरक्षण करना है। और, जो ठीक नहीं है, उसे साहस के साथ काट कर साफ कर देना है। उसके स्थान में यदि कोई अन्य उचित निर्णय अपेक्षित है, तो उसका विचार करना है। जनता के मानस में तो कोई एक परिभाषा निश्चित नहीं है। लोग क्या कहते हैं, यह नहीं देखना है। देखना है सत्य एवं हित क्या है। योग्य डाक्टर या वैद्य, यह नहीं देखता है कि रोगी क्या कहता है, वह क्या खाना-पीना चाहता है। वह तो रोग और उसके प्रतीकार को लक्ष्य में रख कर कडवी या मीठी जैसी भी औषध हो, सुस्वादु या दु:स्वादु जैसा भी खान-पान हो, विधान कर देता है। चिकित्सक रोगी का अनुयायी बना कि सर्वनाश।
नेत-वृन्दों को समयोचित निर्णय लेने में किसी भी प्रकार की झिझक को मन में स्थान नहीं देना चाहिए। स्थान, कारण एवं पात्र विशेष के अनुसार अगर कोई अन्य निर्णय भी अपेक्षित है, तो उस पर भी आचार्य अथवा गुरु को गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए, ताकि स्खलन की संभावना उत्पन्न न हो। ऐसे समय में लोकापवादों की परवाह नहीं करनी चाहिए।
___ गुरु का कार्य साधारण नहीं है। वह "तमसोमा ज्योतिर्गमय' का प्रतिष्ठाता है। अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला महानायक है। समस्या उपस्थित होने पर वह अगर साधारण शिष्य की भांति चिन्तामग्न हो गया, तब तो स्थिति कभी नहीं सुधरेगी। वह पथप्रदर्शक है, अतएव उसे सिर्फ लोक-मंगल को ध्यान में रखना चाहिए। और अपनी प्रज्ञा से समय पर सही निर्णय लेना चाहिए। उसके सामने सर्वसाधारण की इच्छा महत्त्वपूर्ण नहीं है, महत्त्वपूर्ण है सर्वसाधारण की भलाई, उसका मंगल । और यह गरुतरकार्य गुरु ही कर सकता है।
लोक-मढ़ता भी अपने में एक बहुत बड़ी मूर्खता है। भगवान महावीर के दर्शन में यह भी मिथ्यादृष्टि का ही एक रूप है। अनेक लोक-परम्पराएँ ऐसी हैं, जिनका विवेक से कोई संबंध नहीं है। पर, मूढ़ व्यक्ति उन्हें पकड़े ही रहता है। अतएव सम्यगदृष्टि के लिए ऐसी लोक-मूढ़ता का परित्याग आवश्यक है। अधिकतर लोक-मानस गतानुगतिक होता है, पारमार्थिक नहीं होता। हर बात के लिए वह यही कहता है कि यह तो पूर्व से चली आ रही परम्परा है। इसीलिए एक मनीषी ने कहा है--"गतानुगतिको लोकः, न लोकः पारमार्थिकः।" यह सिंह चाल नहीं, भेड़ चाल है। यह प्रति-स्रोतगामिता नहीं, अनुस्रोतगामिता है। वेगवान प्रवाह के प्रतिकूल तैरना प्रतिस्रोतगामी सिंहो का काम है, अनुस्रोतगामी भेड़ों का नहीं।
बहधा यह देखा जाता है कि अनेक धर्माचार्य तथा समाज नेता सत्यासत्य के निर्णय-बिन्दु पर आ कर भी उसे उद्घोषित एवं क्रियान्वित करने में हिचकते रहते हैं। जिसके कारण आवश्यक शुभकार्य बिलम्ब से संपादित हो पाते हैं। कभी-कभी वे वात्याचक्र में ही उलझ कर रह जाते हैं, जिसका परिणाम शुभ की जगह अशुभ होने लगता है । मेरा कहना है कि अगर शुभ है, तो उसे शीघ्र क्रियान्वित करना चाहिए । 'शुभस्य शीघ्रम्'--कोई गलत १९२
सागर, नौका और नाविक
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