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________________ आवश्यक होता है इसी सामयिक उपयोगिता को ध्यान में रख कर विचार किया जाय, तो उपर्यक्त दोनों पक्ष अपनेअपने युग-सत्य पर उचित हैं। दोनों में परस्पर विरोध-जैसा कुछ नहीं है। भगवान् महावीर के पश्चात् उनके ज्येष्ठ शिष्य प्रथम गणधर गौतम का युग आता है। और उसी शिष्य द्वारा भगवान् महावीर के कुछ निर्णयों में परिवर्तन एवं संशोधन किया जाता है। आगम साक्षी है इस बात का कि श्रावस्ती में पार्श्वसंघ के केशीकुमार श्रमण और अन्य समुदाय के परिव्राजकों एवं गृहस्थों के समक्ष गुरु गौतम स्पष्ट रूप से घोषणा करते हैं कि नग्नता आदि क्रियाकांड, धर्म के बाह्य रूप, युग पर आधारित हैं। यह धर्म का, साधना का मूल अंग नहीं है। उत्तराध्ययन सूत्र में आज भी-"लोगे लिंगप्पओयणं।" के रूप में उनका स्वर मुखरित है। वे देश-कालानुसार प्रज्ञा के आधार पर निर्णय ले लेते हैं। उक्त सन्दर्भ में उनका बोधसूत्र “पन्नासमिक्खए धम्म।" युग-युग का बोधसूत्र है। गौतम केवल समन्वय का विचार दे कर ही नहीं रह जाते हैं। स्वयं अपने जीवन में भी उसे साकार रूप देते हैं। अतएव आगे चलकर अनेक जगह वे स्वयं वस्त्रधारी स्थविरकल्पी मुनि के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। उपासकदशांग और विपाकसूत्र आदि उनकी उक्त स्थापना के परिवर्तित रूप के साक्षी हैं। गणधर गौतम का समय पर लिया गया यह निर्णय ही पार्श्व-संघ और महावीर-संघ को एक-धारा का रूप दे सका। परिवर्तन का यह चक्र आगे भी उत्तरोत्तर चलता रहा, अधिक तो नहीं, पर कुछ उदाहरण उपस्थित किये देता हूँ--निशीथ सूत्र के अनुसार भिक्षु के लिए लिखना वर्जित है। लगभग एक हजार वर्ष तक इसी कारण आगमग्रन्थ लिपिबद्ध नहीं हो सके। किन्तु, आचार्य देवद्धिगणि ने आगमों की रक्षार्थ उन्हें लिपिबद्ध करने के लिए पुरातन मान्यताओं को अस्वीकार कर दिया। जैन इतिहास के अनुसार कलम पकड़ने वाले वे प्रथम जैन आचार्य हैं। ऐसा नहीं है कि देवधिगणि का उस वक्त विरोध नहीं हुआ हो। आलोचना, प्रत्यालोचना के कण्टकाकीर्ण पथ से उन्हें अपने ध्येय स्थल तक पहुँचना पड़ा है। यह साधारण-सी बात है कि हर नयी बात का विरोध जनता करती है। सर्वसाधारण जनता का स्वभाव ही कुछ ऐसा है । परन्तु जनता को नेतृत्व देने वाले दिशानिर्देशक इस भय से कभी अपने कर्तव्य से विमुख नहीं हुए हैं अथवा चुपचाप नहीं बैठे हैं। वे निर्द्वन्द्व-भाव से गंतव्य की ओर चलते ही रहते हैं। यदि देवधिगणि यह साहसपूर्ण निर्णय न लेते, तो प्रभु महावीर की वाणी का, आगम सिद्धान्त का, संभव है--एक अक्षर भी हमारे पास नहीं होता। जिस प्रकार उनके पूर्व का विशाल जैन वाङ्मय नष्ट हो गया। इतस्तत: भ्रष्ट हो गया, उसी तरह आज यह जो कुछ अवशेष प्राप्त हैं, वह भी नष्ट हो गया होता। पात्र के संबंध में भी यही बात हुई । प्रथम अंगसूत्र, आचारांग में भिक्षु के लिए एक ही पात्र का विधान है और यह परम्परा काफी समय तक चलती रही। किन्तु बृहत्कल्प आदि भाष्य ग्रन्थों के अनुसार आचार्य आर्यरक्षित से पूर्व भिक्षु के लिए एक ही पात्र विहित था। आर्यरक्षित ने देश और काल की मान्यता को स्वीकार करते हुए दूसरे पात्र का भी विधान कर दिया। एक युग था जब भिक्षु केवल पाणिपात्र था, दूसरे युग में एक पात्र रखने का निर्णय निर्धारित किया गया। और, आर्यरक्षित का यह तीसरा युग था कि दूसरा पात्र भी रखने का निर्णय लिया गया। विरोध इसका भी कम नहीं हुआ होगा। परन्तु, आर्यरक्षित जैसे आचार्य समय की मांग को पहचानते हैं और तदनुसार परिवर्तन का निर्णय लेते हैं। इस प्रकार और भी अनेक परिवर्तनों की गाथाएँ आगम तथा आगमोत्तर साहित्य में परिलक्षित होती हैं। एक बार का आहार तथा तीसरे प्रहर की भिक्षा के एवं रात्रि के तीसरे प्रहर में निद्रा आदि के विधान में परिवर्तन परिलक्षित होते हैं। यह-सब कुछ शिथिलाचार नहीं है, समय की अपेक्षा है। एक समय तो लेखन ही वजित था, अब तो बड़े-बड़े धुरन्धर धर्माचार्यों के ग्रन्थों की हजारों प्रतियाँ धड़ाधड़ छप रही हैं। और इसमें बहुत से व्रत-नियमों का पारणा हो जाता है। निशीथसूत्र में गृहस्थ से पढ़ने का स्पष्ट निषेध है। अब तो काफी समय से वेतनभोगी पण्डितों से पढ़ा भी जाता है। इसे तटस्थ दृष्टि से देखने वालों को साफ पता चल जायेगा कि समय की गति के साथ आगे बढ़ना ही श्रेयस्कर है। जो इस गति के अनुरूप समय पर निर्णय लेते हैं, वे वन्दनीय हैं। क्योंकि वे संघ एवं समाज को बिखरने से बचा लेते हैं। एक समय जब आवश्यकता महसुस हुई, तो आचार्यों ने गहस्थों के लिए मर्तिपूजा का विधान निर्मित किया और जब अनावश्यक आडंबर बढ़ने लगा, तो उसका विरोध भी करना पड़ा। कहने का तात्पर्य यह है कि जब किसी देशकालानुरूपं धर्म कथयन्ति तीर्थकराः १९१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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