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किया है। क्योंकि जैन-दर्शन में अविद्या केवल ज्ञानगत मिथ्यात्व नहीं है, अपितु दर्शनगत और चरित्रगत मिथ्यात्व भी है। अतएव इन दोषों का परिष्कार करने के लिए, मिथ्यात्व दृष्टि से मुक्त होने के लिए, आत्मा की निर्मलता पर आच्छादित कर्म से स्वतंत्र हो कर स्वरूप में अवस्थित होने के लिए एवं विकास की नवीन उपलब्धियों को प्राप्त करने के लिए, समयोचित परिवर्तन परमावश्यक है।
यह किसी सम्प्रदाय-विशेष की दृष्टि नहीं है, बल्कि तीर्थंकर-परम्परा की वह समन्वयात्मक अखण्ड दृष्टि है, जिससे भारतीय-संस्कृति की ऋजुता समृद्ध हुई है। वर्तमान धर्माचार्यों एवं समाज-शास्त्रियों से यह मेरा अनुरोध है कि वे इस व्यापक भारतीय असाम्प्रदायिक दार्शनिक दृष्टिकोण पर तटस्थ दृष्टि से विचार करेंगे, जिससे अज्ञान का तिरोधान होगा एवं सम्यक्-साधना के अभ्यास द्वारा भारतीय मनीषा के साधक अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होंगे।
देशकालानुरूपं धर्म कथयन्ति तीर्थंकराः
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