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________________ जगमगा दिया। और तब से यह ज्योति-पर्व की परम्परा जन-जीवन में प्रवाहित हो गई, जो आज भी श्रद्धा एवं भक्ति के साथ प्रवहमान है। यह ज्योति-पर्व बहुत-सी स्मृतियाँ लिए हुए हैं। इस पर्व के साथ इतिहास की अनेक कड़ियाँ जुड़ी हुई हैं। अनेक महापुरुषों के जीवन की गाथाएँ इससे संबद्ध हैं। परन्तु मुख्य रूप से दो बातें हैं, जिन्हें ध्यान में रखना है। एक तो यह है कि यह ज्योति-पर्व है। संसार में सबसे अधिक डरावना एवं भयावना अंधकार है। आप देखते हैं कि दुनिया में जितने भी पाप होते हैं, जितने कुकृत्य होते हैं, जितनी बुराइयाँ पनपती हैं, वे अंधकार में ही पनपती है। और तो क्या, मच्छर, खटमल आदि क्षुद्र प्राणी भी रात को काटते हैं, सताते हैं। जितने भी क्रूर पशु-पक्षी हैं, वे भी रात में विचरण करते हैं। चोर, डाकु, लटेरे आदि भी अंधेरे में ही दुष्कर्म करते हैं। इस प्रकार बाहर का अंधकार भयावना है, वह पापों का, दुष्कर्मों का केन्द्र बन जाता है। इस अंधकार से भी अधिक भयंकर अंधकार वह है, जो मनुष्य के मन में रहता है। मानव-मन में जब मोह का, अज्ञान का अंधकार होता है, तो व्यक्ति इधर-उधर ठोकरें खाता फिरता है। उस अंदर के अंधकार में क्रोध पनपने लगता है, अहंकार बढ़ने लगता है, माया-छल-कपट एवं लोभ आदि दुर्गणों का विस्तार होने लगता है। समस्त दोष, वासनाएँ एवं विकारों का जन्म अंधकार में ही होता है। इसलिए मोह का, अज्ञान का अंधकार समस्त पापों की जड़ है। बाहर का अंधकार भी काफी भयंकर है, पर उसकी कुछ सीमाएँ हैं और उसमें अपकर्म करने-वाले जो दुष्कर्मी हैं, संभव है, पुलिस की सूची में उनका अता-पता कभी-कभाक मिल भी जाता है, किन्तु जो अन्दर के चोर हैं, डाकू हैं, उनका अता-पता लगाना गुप्तचर पुलिस के लिए भी कठिन ही नहीं, असंभव है। और, वे अन्दर की चोर-उचक्के दस-बीस या सौ-दो-सौ नहीं, असंख्य हैं। भगवान् महावीर ने कहा था कि उनके असंख्य-असंख्य रूप हैं, अनंत रूप हैं। अभिप्राय यह है कि ये हजारों-हजार दुर्गण क्यों पनपते हैं ? यह क्रोध क्यों आता है ? मन में अहंकार का नाग क्यों फुफुकार उठता है? माया, छल-कपट एवं लोभ की पिशाचनी अपना जाल क्यों फैलाती है? क्योंकि मन में अज्ञान का, मोह का अंधेरा है। और ये समस्त विकार अंधेरे में ही पनपते हैं। इसलिए जीवन में विकास-पथ पर बढ़ने के लिए प्रकाश आवश्यक है। जैसे बाहर के जीवन में प्रकाश जरूरी है, उसी तरह अंदर के जीवन में भी ज्योति का महत्त्व है। अन्तर-चेतना में और अन्तर-जीवन में जब ज्ञान का दिव्य आलोक फैलना शुरू होता है, तो साधक आध्यात्मिक विकास-पथ पर गतिशील हो जाता है। फिर अन्तर्मन में भुनभुनाते मच्छरों का कहीं पता नहीं चलता, कि वे कहाँ जा छिपे। सभी तरह के क्षुद्र एवं क्रूर मनोविकार विलुप्त हो जाते हैं। यह ज्ञान की अनंत ज्योति जब श्रमण भगवान महावीर के अन्तर जीवन में प्रज्वलित हुई, तो उनके समस्त विकार नष्ट हो गए। प्रभु महावीर कहते हैं कि पाप-वासनाएँ एवं मनोविकार तभी तक पनपते हैं, जब तक अन्तर् जीवन में सम्यक्-ज्ञान का दीप नहीं जलता। श्रमण भगवान् महावीर के अन्तर-जीवन में अनन्त ज्योतिर्मय ज्ञान का सूर्य प्रकट हआ, तब सिर्फ उनका ही अंधेरा दूर नहीं हुआ, प्रत्युत लाखों-लाख लोगों के मन का अंधेरा भी उनके ज्योतिर्मय दिशा निर्देशन में ट्ट कर खत्म हआ। अनंत काल से चले आ रहे लाखों-लाख अंधों को ज्योति मिली, अपने पथ के अवलोकन की दृष्टि मिली। इसलिए भगवान् के लिए हम कहते हैं-'लोग पज्जोयगराणं' और 'चक्खुदयाणं'--आप लोक में प्रकाश करने वाले, ज्योति फैलानेवाले तथा अन्धों को चक्षु (दृष्टि) देने वाले महान् गरु हैं। प्रभु की ज्योतिर्मय वाणी अज्ञान के, मोह के अंधेरे में इधर-उधर भटकते, दर-दर की ठोकरें खाते-फिरते व्यक्ति की आँखें खोल देती हैं। इसलिए महाप्रभु महावीर की वाणी का स्वाध्याय करें, निरन्तर स्वाध्याय करें और उस पर चिन्तन-मनन करें, तो आपको वह दिव्य दृष्टि मिलेगी, जिससे आपके अंदर की अनंत ज्योति अनावृत होती चली जायगी। आपका शरीर, आपकी इन्द्रियाँ, जो कर्म करती हैं, रात-दिन कर्म में लगी रहती हैं, उन्हें निर्देशन कौन देता है, उनका संचालन कौन करता है? आपका मन ही उनका संचालक है। मन जब कहता है चलो, तो आपके कदम मार्ग पर गतिशील हो जाते हैं और उसका आदेश मिलता है ठहरो, तो तुरन्त कदमों की गति रुक जाती है। मन कहता है, खाओ, तो आप खाने लगते हैं। वह कहता है, गुस्सा करो तो आपके नेत्र आरक्त हो जाते १८० सागर, नौका और नाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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