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________________ हैं, अंगारे की तरह आग उगलने लगते हैं, मुँह से कठोर शब्द बाणों की बौछार होने लगती है। मन कहता है, क्षमा करो, शान्ति रखो, तो आपके हृदय से क्षमा की, शान्ति की शीतल-धारा बह निकलती है। इस प्रकार सारे चक्र का, शरीर एवं इन्द्रियों से होने वाली समस्त प्रवृत्तियों का संचालक मन है। परन्तु, मन का सूचनाकेन्द्र कौन है ? उसे दिशा-निर्देशन कहाँ से मिलता है ? मन का सूचना केन्द्र है--महापुरुषों की वाणी। उसे जितनी अच्छी सूचनाएँ मिलती हैं, वे सब महाप्रभु की वाणी से मिलती है। और, जो गलत सूचनाएँ मिलती हैं, वे मिलती हैं, स्वार्थ, मोह एवं वासनाओं के शैतानों से, जो साधक को इधर-उधर भटका देती है। इसलिए आवश्यक यह है कि आप चिन्तन-पूर्वक प्रभु वाणी का स्वाध्याय करें। उसने प्रेम का यदि व्यक्ति में है, तो पा अबाध मन को। वह निर्देशन ऐसा तम साधना कर रहा है, तो वह शुरू हो जाती है। ढाई हजार वर्षपूर्व महाप्रभु महावीर जन-मन को अहिंसा का, करुणा का, सत्य का निर्देशन दे गए थे। उसने प्रेम का, स्नेह का, क्षमा का, सहिष्णुता का निर्देशन दिया था मानव के अबोध मन को। वह निर्देशन ऐसा निर्देशन था कि यदि व्यक्ति एकान्त में साधना कर रहा है, तो वहाँ भी आनंद के क्षीर-सागर में डुबकियाँ लगनी शुरू हो जाती हैं। परिवार में है, तो परिवार के साथ आनंद का उपभोग कर सकता है। समाज और राष्ट्र में रह-रहा है, तो समाज एवं राष्ट्र के व्यक्तियों को प्रेम-स्नेह एवं आनंद बांटता हुआ सुप्रसन्न जीवन-यात्रा कर सकता है। वह कहीं भी क्यों न रहे--भले ही राजमहल हो या टूटी-फूटी घास की झोंपड़ी, सर्वत्र आनंद में रहता है। भगवान् के निर्देशन के अनुसार जीवन-यात्रा करने वाला साधक एक नयी दृष्टि का, एक अद्भुत सृष्टि का निर्माण करता है। उस सृष्टि के सामने स्वर्ग का राज्य, इन्द्र का सिंहासन भी धूमिल हो जाता है। वह संसार के सब तरह के अंधेरों को चीरता हुआ प्रभु-वाणी के आलोक में विकास-यात्रा पर निरन्तर बढ़ता जाता है। वह प्रभु से और कुछ नहीं चाहता, केवल ज्योति चाहता है, सत्य का आलोक चाहता है, ज्ञान का प्रकाश चाहता है, जीवन का अमृत चाहता है "असतो मा सद् गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय।" हे प्रभो! मुझे असत् से सत् में ले चलो, मुझे अंधकार से ज्योति में ले चलो, और मुझे मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो। भारतीय जन-ज्योति के प्रतीक के रूप में दीप जलाकर प्रकाश की उपासना करते हैं और लक्ष्मी की पूजा करते हैं। लक्ष्मी की ही नहीं, महालक्ष्मी की पूजा करते हैं। महालक्ष्मी शब्द में जो महान शब्द का विशेषण लगाया है, वह महत्त्वपूर्ण है। सिर्फ लक्ष्मी ही नहीं, महालक्ष्मी चाहिए। महालक्ष्मी की उपासना का अर्थ है-- जीवन की समस्त--तन की, मन की और अर्थ की (जीवनोपयोगी भौतिक साधनों की) दरिद्रता समाप्त हो जाये। दरिद्रता भले ही वह किसी भी प्रकार की क्यों न हो, भयंकर होती है। दरिद्रता के अनेक रूप हैं। सिर्फ पैसे का, अर्थ का अभाव ही दरिद्रता नहीं है। तन की दरिद्रता भी जीवन-विकास के लिए एक अभिशाप है। तन अस्वस्थ है, जर्जर है, दुर्बल है--न तो वह ठण्डी हवा का झोंका सह सकता है और न गर्म हवा का। उस दरिद्र शरीर की स्थिति बड़ी नाजुक होती है। यदि रोटी का एक टुकड़ा ज्यादा खा लिया तो रात भर, दिन भर परेशान हैं और एक टुकड़ा कम खा लिया, तब भी क्षुधा से परेशान हैं। विचित्र स्थिति है तन की दरिद्रता की। महालक्ष्मी का आह्वान इसलिए है कि हमारे तन की दरिद्रता भी दूर हो। भगवान महावीर ने भी धर्मसाधना के लिए स्वस्थ और सशक्त तन की बात कही है। कुछ लोग कहते हैं कि भगवान् वीतराग थे, उन्हें संसार से क्या लेना-देना है ? और शरीर की स्वस्थता-अस्वस्थता से उन्हें क्या अपेक्षा है ? परन्तु, उन्हें लेना-देना है। आगम में एक प्रश्न है--मुक्त कौन होगा? उत्तर में भगवान् महावीर ने कहा है कि--मुक्ति के लिए वज्रऋषभनाराच सहनन अर्थात् वज्र जैसे दृढ़ एवं सशक्त शरीर का होना भी आवश्यक है। समस्त कर्म-बंधन से मुक्त होने के लिए अन्य अनेक अपेक्षाओं के साथ वज्र जैसा शरीर भी होना चाहिए। अन्तर्-चेतना का महत्त्व तो है ही, उसके बिना आध्यात्मिकता हो ही नहीं सकती। परन्तु, उसके विकास के लिए शरीर की संपन्नता का भी महत्त्व है। वज्र जैसा दृढ़ एवं स्वस्थ शरीर ही आध्यात्मिकता के द्वार खोल सकता है। जिनके शरीर गले-सड़े हैं, इन्द्रियाँ अपूर्ण या शिथिल हैं, वे क्या तो धर्म के द्वार खोलेंगे, वे क्या साधना-पथ पर गति करेंगे और वे क्या मुक्ति-पथ पर बढ़ सकेंगे? इसलिए तन के दरिद्र अर्थात् शरीर से अस्वस्थ, कमजोर एवं जर्जर व्यक्ति क्या कर सकते हैं? वह कुछ भी तो नहीं कर सकता--वह न धर्म कर सकता है और न कर्म । बात यह है कि गिर गया, ज्योति-पर्व १८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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