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भारतवर्ष की महान संस्कृति एवं उज्ज्वल परंपरा में दीपावली का महत्त्वपूर्ण स्थान है। दीपमाला में सिर्फ एक ही ज्योतिर्मय दीप नहीं, दीपों की आवलियाँ, पंक्तियाँ हैं। एक के बाद एक श्रेणीबद्ध दीप प्रज्वलित हैं। इसलिए दीपमाला और दीपावली एक ही है। आवली का अर्थ है-पंक्ति, शृंखला। अतः दीपावली ज्योति का पर्व है, प्रकाश-पर्व है। इस ज्योति-पर्व के साथ इतिहास की महत्त्वपूर्ण कड़ियाँ, स्वर्णिम शृंखलाएँ जड़ी हुई
एक ज्योतिर्मय व्यक्तित्व, जो इतिहास का एक चमकता-दमकता अद्भुत रत्न-चिन्तामणि इस पर्व के साथ संबंधित है, वह है श्रमण भगवान महावीर। वह महान्, विशाल, एवं विराट् आत्मा, अनंत ज्योतिर्मय आत्मा, जिसका हर गुण अनंत है। उस उज्ज्वल एवं विराट् पुरुष का दर्शन अनंत है, ज्ञान अनंत है, चारित्र अनंत है, वीर्य (शक्ति) भी अनंत है और सुख, शान्ति एवं आनंद भी अनंत है। छोटे-से बिन्दु से उसने अन्तर-यात्रा शुरू की, लेकिन जब वह साधना पथ पर चल पड़ा, तो बिन्दु से सिन्धु बनता गया। वह नन्ही-सी बूंद सागर का विशाल रूप लेती गई और विराट होते-होते एक दिन श्रमण महावीर तीर्थकर, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी के रूप में पूर्ण ज्योतिर्मय हो गया।
सागर विराट् है, महान् है। उसमें अपार जलराशि है। अतः उसे अपार भी कहा है। परन्तु, धरती पर उसकी भी सीमाएँ हैं, मर्यादाएँ हैं। कोई भी सागर, कितना ही विशाल क्यों न हो, अपार नहीं है। ऐसा कोई सागर नहीं है, जिसे पार नहीं किया जा सके। परन्तु वह महान् ज्योतिर्मय चेतना, जो बंद के रूप में थी, विराट होते-होते अनंत हो गई, अपार हो गई। न उनके ज्ञान की थाह पाई जा सकती है और न दर्शन एवं चारित्र की। जो अनंत है, अथाह है, उसका किनारा पा सकना कठिन ही नहीं, असंभव है। वह विराट् ज्योतिर्मय आत्मा अर्हन्त के रूप में तीस वर्ष तक धरती के प्राणियों के कल्याण के लिए, उनकी रक्षा एवं दया के लिए महानदी गंगा की तरह निरन्तर प्रवहमान रही। उस महाज्योति के जिधर भी चरण पड़े, उधर ही गाँव-गाँव में, नगरनगर में, घर-घर में, टूटी-फूटी झोपड़ी से ले कर राजमहलों तक में ज्योति प्रज्वलित होती गई। उस महाज्योति ने ऋषि-महर्षि, मनि, त्यागी-तपस्वी, विद्वान् मनीषियों को ज्ञान की आँख दी, निज स्वरूप को देखने-परखने एवं समझने की दृष्टि दी। जो अनंत-काल से मोह के, अज्ञान के अंधकार में भटक रहे थे, तेरे-मेरे के द्वन्द्वों में उलझ रहे थे, उन्हें चेतना के ऊर्ध्व विकास की सही राह दिखाई। इस प्रकार वह ज्योतिर्मय आत्मा तीस वर्ष तक निरन्तर प्रकाश देती रही।
पावापुरी के अंतिम वर्षावास में श्रावण, भाद्रपद और आश्विन के पूरे तीन मास और ऊपर कार्तिक के एक पक्ष तक उनकी ज्ञान-गंगा का प्रवाह निर्बाध-गति मे बहता रहा। कार्तिक कृष्णा अमावस्या अर्थात् दीवाली के दिन उस महान आत्मा ने अर्हन्त अवस्था से ऊंची अवस्था को प्राप्त किया, जिसे हम सिद्ध अवस्था कहते हैं, जहाँ पहुँचने के बाद आत्मा वापस लौटती नहीं। उस ऊंचाई को उसने छू लिया, जिसके आगे और ऊंचाई है नहीं। इसलिए उसे लोकान्त कहा है। उसके आगे लोक है नहीं और पीछे हटने का, नीचे गिरने का तो प्रश्न ही नहीं है। इस प्रकार सिद्धत्व की महान् भूमिका प्राप्त की महाप्रभु महावीर ने।
दीपावली का यह ज्योति-पर्व उस महान् आत्मा की, जगत् बन्धु की, जगत् गुरु की स्मृति में मना रहे हैं। महान् आचार्य श्रुत-केवली श्री भद्रबाहु ने, जो कि ज्ञान का गर्जता हुआ विराट् सागर है, कल्पसूत्र में कहा है--निर्वाण के समय भगवान् महावीर के अंतिम समवसरण में उपस्थित राजाओं ने यह निर्णय लिया कि भाव उद्योत, भाव-प्रकाश, भाव-ज्योति आज हमारे बीच से चली गई है, अतः उस ज्योति के प्रतीक के रूप में द्रव्य उद्योत किया जाए, द्रव्य प्रकाश किया जाए। उस समय नव मल्ली और नव लिच्छवी--१८ गणराज्यों के राजा भगवान की अंतिम देशना सुनने और उनके अंतिम दर्शन करने के लिए वहाँ उपस्थित थे। उन्होंने रत्नदीप प्रज्वलित करके द्रव्य-उद्योत किया। बात यह है कि भाव-ज्योति को जगाने की स्मृति के लिए द्रव्य-ज्योति एक प्रतीक है। और तत्कालीन वे ज्ञान-ज्योति के प्रतीक रत्न-दीप भी आज नहीं रहे, पर मिट्टी के दिए आज भी जल रहे हैं। इस प्रकार जैन-इतिहास के अनुसार दीपावली को ज्योति-पर्व का रूप श्रमण भगवान महावीर के निर्वाण दिवस से मिला। राजाओं ने रत्न-दीप प्रज्वलित किये, और ज्योति-पर्व प्रारम्भ हो गया। देवों ने, देवियों ने, अप्सराओं ने, यक्षों ने, गंधर्वो ने रत्नों की ज्योति से पावापुरी के कण-कण को आलोकित कर दिया,
ज्योति-पर्व
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