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________________ रूप में निषेध न रह कर कर्तव्य हो जाता है । स्त्री का स्पर्श करने का निषेध है, साधु नवजात बच्ची का भी स्पर्श नहीं करता । परन्तु यदि कोई साध्वी भूताविष्ट है, क्षिप्त-चित्त है, नदी या तालाब में डूब रही है, तो उस समय उसे बचाने की दिशा में वह पूर्व निषेध अवरोधक नहीं है। ऐसे समय के लिए स्पष्ट विधान है कि साधु साध्वी को पकड़कर उसे पानी से बाहर निकाल सकता है। इसी प्रकार किसी विशेष प्रसंग पर आवश्यकता पड़ने पर जानते हुए भी यह कह दे कि में नहीं जानता, तो साधु का सत्य महाव्रत भंग नहीं होता। उस समय वही सत्य है। इस प्रकार विवेक-सम्पन्न साधक ही धर्म - कथा कह सकता है । जिसका चिन्तन गहन एवं व्यापक है, जिसकी दृष्टि विशाल और सम्यक् है तथा जिसका हृदय उदार है, वही धर्म-कथा कर सकता है। तात्पर्य यह है कि एक ही बात के लिए एक बार निषेध कहा गया है, तो दूसरी बार उसका विधान भी कर दिया गया है। एक ही कार्य कभी 'हाँ' तो कभी 'ना'-कभी स्वीकार तो कभी इनकार, दोनों तरह से कहा गया है। यह बात आज ही नहीं, श्रमण भगवान् महावीर के समय में भी कही जाती रही है। भगवान् महावीर पर प्राय: यह आक्षेप लगाया जाता था कि वे एक वचन नहीं है, स्थिरचित्त नहीं है। सूत्रकृतांगसूत्र में वर्णन आता है कि ईरान के राजा का पुत्र आर्द्रकुमार एक बार मगध की राजधानी राजगृह में आया था। उसने भगवान् महावीर का प्रवचन सुना और वह भ्रमण बनने को तैयार हो गया। भगवान् के चरणों में अपने को समर्पित करने, दीक्षा लेने आ रहा था कि रास्ते में गोशालक मिल गया उसे उस समय कुछ गुरु बड़े-बड़े राजकुमारों को झपटने का अवसर खोजते रहते थे। उस युग के गुरुओं की इस बात में प्रतिष्ठा थी कि किसके पास कितने राजकुमार दीक्षित हैं। गोशालक को जब पता लगा कि यह ईरान का राजकुमार है और भगवान महावीर का शिष्य बनने जा रहा है, तो उसे अपनी और आकृष्ट करना चाहा। राजकुमार और वह भी विदेशी, यह तो गोशालक के लिए सोने में सुगंध वाली बात थी। आज भी कुछ गुरुजनों के लिए विदेशियों का महत्व कम नहीं है। अतः गोशालक ने उसे कहा- तू दीक्षा ले रहा है, यह तो अच्छा है। परन्तु से कह रहा है? श्रमण महावीर को जानता भी है ? न तो उनकी बात का कोई ठिकाना है और न जीवन का देखो, कुछ वर्ष पूर्व तो वह अकेला घूमता था, शून्य जंगलों में रहता था, किसी से बोलता भी नहीं था और किसी को दीक्षा भी नही देता था। तप ही करता रहता था और अब तो इन सबका पारणा ही कर लिया है। यदि निर्जन वनों में मौन सहित तप करना ही धर्म था, तो अब भी धर्माराधना के लिए पूर्ववत् जंगलों में ही क्यों नहीं रहता ? अब वह क्यों भीड एकत्रित करने लगा है, क्यों उपदेश देने लगा है, क्यों शहर में रहने लगा है और नयों शिष्य बनाने लगा है ? बोलने की बात ही क्या ? अब तो बोलने का पूरा पारणा ही कर लिया है। एक प्रहर तक सुबह में और एक प्रहर तक संध्या को बोलता है और उसके बीच में कोई आ जाए, तो वह अलग से है। यदि मौन रसना धर्म था, तो अब इतना क्यों बोलता है ? अरे आईक! यह किसी एक किनारे का स्थिर व्यक्ति नहीं है। इसलिए तुमको उसके पास प्रव्रजित होने में क्या लाभ है ? राजकुमार ने कहा- गोशालक ! आप इतने उत्तेजित क्यों हो रहे हैं? इसमें इतना परेशान होने और आलोचना करने जैसी क्या बात है? मौन भी साधना का एक अंग है और समय पर बोलना भी साधना का एक अंग है। प्रबुद्ध पुरुष वह है, जो मौन और अमौन की यथोचित उपयोगिता को समझता है। जिस समय मौन रहना उचित है, तब वह मौन रहता है और जब बोलना उचित लगता है, तब वह बोलता है। श्रमण भगवान् महावीर जब साधना में संलग्न थे, आत्म-चिन्तन में लीन थे, तब उन्हें एकान्त की आवश्यकता थी, इसलिए नगरौ से, गांवों से दूर जंगलों में रहे मौन रहे और एकाग्रचित्त से ध्यानस्थ खड़े रहे। जब अध्यात्म साधना से जोकुछ पाना था, वह पा लिया, तब मूक बनकर एकान्तवास करने में, जंगल में रहने में क्या लाभ है ? अब तो जो पाया है, उसे जन-कल्याण के लिए जन-जन में वितरण करो । अतः भगवान् महावीर के साधना काल में मौन रहने आदि की निवृत्तिपरक साधना में और अब पूर्णता पाने के बाद देशना देने आदि की इन प्रवृत्तियों में न तो परस्पर विरोध है और न किसी तरह की अस्थिर वृत्ति ही है। बात यह है कि जीवन गतिशील है। यह देशकालानुसार मोड़ लेता रहता है, अतः जो विरोधाभांस दिखाई देता है, यह विरोध नहीं है, अनुरोध ही है। अतः कहीं भी अंध एकान्त नहीं है-श्रेष्ठ और उच्च धर्म-दर्शन में । यह अनेकान्त का राजपथ है । इसलिए महान् धर्माचार्य, गुरु वह है, जो समय-समय पर जिस कार्य को न करने के लिए हजार बार 'ना' कहता रहा हो, समय पर उसी के लिए 'हाँ' कहने का प्रसंग उपस्थित होने पर निर्द्वन्द्व भाव से 'हाँ' भी कह सके और उदयति दिशि यस्याम् Jain Education International For Private & Personal Use Only १७३ www.jainelibrary.org.
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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