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उक्त सन्दर्भ में एक बात और गहराई से विचारने योग्य है। वह यह कि सुख और दुःख की मौलिक व्याख्या क्या है ? जो ऊपर में दिखाई देता है , वही सुख-दुःख है, या वह और कुछ है।
प्रायः देखा जाता है कि जिसके पास कुछ अधिक सुख साधन है, धन-संपत्ति है या सत्ता है, उसे लोग सुखी मान लेते हैं। और जिसके पास ऐसा कुछ नहीं है, या जो सरलता एवं न्याय नीति से यह सब सहज भाव से प्राप्त नहीं कर पाया है, वह दुःखी है, ऐसी कुछ आम लोगों की धारणा बन गई है। पर, सोचना होगा, क्या यह धारणा सत्य पर आधारित है? क्या सचमुच में ही सुख-दुःख इसी ऊपरी दिखाऊ दृश्य पर तौले जा सकते हैं? नहीं, ऐसा नहीं है। सुख-दुःख का मूल आधार अन्दर में मानव का मन है। बाहर का दुःखी, अन्दर में बहुत बड़ा सुखी हो सकता है। और बाहर का सुखी अन्दर में बहुत बड़ा दुःखी भी हो सकता है। वास्तव में सुख-दुःख मन के खेल है।
जो उच्चस्तरीय मन का व्यक्ति सच्चाई और प्रामाणिकता के पवित्र संकल्प का भाव लिए जीवन-पथ पर गतिशील है, उस को यह फिक्र नहीं है कि बाहर की दुनियादारी में उसे क्या मिलता है और क्या नहीं मिलता है? उसकी अन्तर्दृष्टि में न्याय-नीति और प्रामाणिकता ही अपने में स्वयं एक आनन्द है। अच्छे और भले लोगों के लिए यह नैतिक जीवन-पद्धति ही मानसिक आनन्द की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
प्रामाणिकता का यह आनन्द उन लोगों को नहीं मिल पाता है, जो मजबूरी के कारण प्रामाणिक हैं, किसी परिस्थिति के कारण बेईमानी नहीं कर पाते हैं। उनके अन्तर में प्रामाणिकता अन्दर से उभर कर नहीं आती है, अतः वह सहज श्रद्धा का रूप नहीं ले पाती है। अगर ऐसे लोगों को कोई अनुकूल अवसर मिल जाए, और तदनुसार उलटा-पुलटा कुछ कर सकें तो उन्हें बेईमानी करने से कोई ऐतराजग्नहीं है। ऐसे व्यक्ति ही प्रायः कहते हैं कि हमें तो सच्चाई से दुःख ही मिला है। और वस्तुतः इस प्रकार की रसहीन स्थिति में दुःख ही होगा, और क्या होगा? इसके विपरीत जिनके जीवन में सच्चाई का निष्ठा के साथ शुभ संकल्प है, उनके लिए उनकी वह सच्चाई ही सब से बड़ा सुख है, जिसके समक्ष स्वर्ग के देवों का सुख भी तुच्छ है।
कल्पना कीजिए, एक आदमी यहाँ बैठा है। उसके हाथ में एक मूल्यवान् घड़ी है। कुछ और लोग भी पास बैठे हैं। उनमें से एक व्यक्ति घड़ी की सुन्दरता देखकर प्रसन्न है। पर, उसके मन में घड़ी को उड़ा लेने की कोई संकल्प नहीं है। दूसरा व्यक्ति सुन्दर घड़ी को छीन लेना चाहता है। पर कैसे छीने, जानता नहीं है, या दुर्बलता एवं डर के कारण छीनने का सामर्थ्य नहीं है। अतः वह ऊपर से तो पहले व्यक्ति के समान ही घड़ी की सुन्दरता पर प्रसन्न होता है, हंसता है, पर अन्दर में उसके मन में तड़पन है, व्याकुलता है, परेशानी है। मिल नहीं रही है, यह बहुत बड़ा दर्द है उसके दिल का। एक तीसरा व्यक्ति, इसी बीच घड़ी छीन कर भाग जाता है। अब, वह दूसरा व्यक्ति सोचता है, अरे वह छीन ले गया। मैं छीन लेता, तो घड़ी मुझे मिल जाती। में भाग्यहीन कोरा रह गया। उक्त घटना चक्र में घड़ी न छीनना सहज प्रामाणिकता है, पहले व्यक्ति की। जो घड़ी देखकर प्रसन्न हो रहा था उसके सौन्दर्य पर। अतः वह सुखी है। दूसरे व्यक्ति की घड़ी न छीनने की बातें ऊपर से ओढ़ी हुई है, लादी हुई है, सहज मन से नहीं है, अत: उसके जीवन में न प्रामाणिकता है, न न्याय-नीति है और न सच्चाई है। इसलिए वह दुःखी है।
मूल बात मन की पवित्रता की है। जिनका मन पवित्र है, वे बाहर में सुख-सुविधा के साधन एकत्र कर पाएँ या न कर पाएँ, हर हालत में प्रसन्न रहते हैं, सुखी रहते हैं। इसके विपरीत जिनका मन अपवित्र है, अप्रामाणिक है, वे बाहर में सुख-सुविधा के साधन पा लें तब भी और न पा लें तब भी, हर हालत में दुःखी हैं। अप्रामाणिकता से सुख के साधन तो संभव है, कदाचित् जुट भी जाएँ, किन्तु उनसे सुख नहीं प्राप्त किया जा सकता। यही कारण है कि अप्रामाणिकता की, अन्याय-अत्याचार की बुनियाद पर खड़े हुए सोने के महल भी रोते हैं और घास के झोपड़े भी आंसू बटाते हैं। इसके विपरीत प्रामाणिकता के आधर पर पल्लवित महल और झोंपड़े दोनों ही हंसते हैं। सुख के लिए, प्रश्न सुख-साधनों के भाव या अभाव का उतना नहीं है, जितना कि प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता का है। प्रामाणिकता का सच्चा उपासक यदि महल में है, तब भी सुखी है, प्रसन्न है, और यदि वह झोंपड़ी में है तब भी मस्ती में है, आनन्द में है। उसके आनन्द का अक्षय कोष अपने आदर्शों की प्रामाणिक निष्ठा में है, क्षणध्वंसी संसारी, सूख-साधनों में नहीं।
सागर, नौका और नाविक
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