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________________ प्रश्न--सच्चाई और प्रामाणिकता का प्राचीन धर्मग्रन्थों में बहुत मखर गुणगान किया गया है। हजारों वर्षों से आप जैसे मुनिश्रेष्ठ आये दिन धर्म-मंच पर से इन गुणों को चमत्कृत कर देने वाली फलश्रुतियों की घोषणा करते हैं और कहते हैं कि सच्चाई एवं प्रामाणिकता से लोक, परलोक दोनों सुखी होते हैं। प्रामाणिकता से न्यायनीति से जीवन गुजारनेवाला व्यक्ति परलोक में तो स्वर्गीय सुखों का आनन्द उठाता ही है, वह इस वर्तमान जीवन में भी जीते-जी स्वर्ग का आनन्द पा लेता है। किन्तु क्षमा करें, सर्वसाधारण जनता का अनुभव इसके विपरीत है। परलोक को तो किनारे छोड़िए, उसे हमने देखा नहीं है। हम तो इस धरती की बात करते हैं। यहाँ तो सच्चाई एवं प्रामाणिकता से चलनेवाला व्यक्ति दुःख ही पाता है, अभाव से पीड़ित रहता है। और इसके विपरीत जो व्यक्ति छल-छन्द में निपुण हैं, हर गलत रास्ते से, हर तरह की बेईमानी से अपना उल्ल सीधा करना जानते हैं, वे खूब मौजमस्ती के साथ दुनिया का मनचाहा आनन्द प्राप्त कर लेते हैं, उन्हें कोई दुःख या अभाव नहीं होता। यह क्या बात है? कुछ समझ में नहीं आ रहा है। उत्तर--आपका प्रश्न चिन्तन की ऊपरी तह का है, गहराई का नहीं है। आसपास की घटित दो-चार घटनाओं से ही इस प्रकार के निर्णय स्थिर कर लिए जाते हैं। किन्तु विश्व के विराट् क्षितिज पर व्यापक दृष्टि नहीं डाली जाती। ऐसा एकान्त कहाँ है कि गलत रास्ते पर चलनेवाला हर आदमी दुनिया में सुखी है और सही रास्ते पर चलनेवाला हर आदमी दुःखी है, उसके जीवन में कहीं कोई सुख नहीं है। दुनिया में हजारों चोर हैं, डाक हैं, जेबकतरे हैं, उठाईगिर हैं, गुंडे हैं, बदमाश हैं। देखिए, क्या जिन्दगी है उनकी ? हर समय भय से आक्रान्त रहते हैं, जानवरों की तरह इधर-उधर छपते-दुबकते फिरते हैं। हर वक्त मौत की, गिरफ्तारी की तलवार सिर पर लटकती रहती है। अब मरे, अब पकड़े गए। अब जेल में गए, बस, यही चिन्ता-चक्र हर क्षण मन-मस्तिष्क पर घूमता रहता है। न खाने का सुख है, न पहनने का। न परिवार के साथ रहने का सुख है, और न निश्चिन्तता के साथ मजे की नींद लेने का। अनेक प्रसिद्ध दस्युओं तथा तस्करों के उद्गार हैं कि हमारे पल्ले तो बुराई का पाप ही पड़ता है। जो लट में, चोरी में कमाते हैं, उसके दो-चार पैसे या आने ही हमें मिलते हैं। बाकी तो बीच के बिचौलिये ही हजम कर जाते हैं। "पराधीन सपने हुं सुख नाहीं।" व्यापारी वर्ग के अप्रामाणिक व्यक्ति भी कहाँ सूखी हैं ? अन्याय से उपाजित दो नंबर का पैसा आज तो गले की फांसी बना हुआ है। वह बाहर में तो क्या काम में लाया जाएगा, उसे अंदर में छिपा कर रखना भी एक भयंकर सिरदर्द है। आये दिन रेड और छापे पड़ जाने का डर लगा रहता है। धन भी जाता है साथ ही इज्जत भी। मीसा में कैद होकर जेलों में सड़ना पड़ जाए वह अलग। बहुत से व्यक्ति तो ऐसे भी हैं, जो दुनिया भर की ठगी, बेईमानी करके भी कुछ सुख-सुविधा या धनसंपत्ति अजित नहीं कर पाते हैं। सारी जिन्दगी पापड़ बेलते रहते हैं, मिलता कुछ नहीं है। उनके लिए 'गुनाह बेलज्जत' की लोकोक्ति बिल्कुल फिट बैठती है। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि गलत काम किए देर होती नहीं है कि पाप का उद्घाटन हो जाता है, रंगे हाथों पकड़ लिए जाते हैं। इसे कहते हैं, सिर मुंडाते ही ऊपर से ओलों की वर्षा हो जाना। उक्त लोगों के विपरीत हजारों लोग ऐसे भी हैं, जो सच्चाई और प्रामाणिकता के साथ जीवन गुजारते हैं, और धन-सम्पत्ति, मान-मर्यादा, यश-प्रतिष्ठा आदि खूब अच्छी तरह पाते हैं, जीवन भर सुखी रहते हैं। जितना कमाये, उसी के अनुसार जीवन स्तर बनाये, वह क्यों अप्रमाणिकता करेगा, क्यों दुःखी रहेगा। आय से अधिक व्यय ही अप्रामाणिकता का मूल है, और वही अशान्ति एवं दुःख का कारण है। "तेते पांव पसारिये जेती लांबी सोर" की लोकोक्ति में कहाँ दुःख है। प्राचीन इतिहास में तो ऐसे हजारों यशस्वी उदाहरण हैं। वर्तमान में भी ऐसे उदाहरणों की कोई कमी नही है। गहराई से देखनेवाली आँखें चाहिएँ। उक्त चिन्तन पर से स्पष्ट हो जाता है कि बाह्य दृष्ट सुख का कारण बेईमानी नहीं हैं, और न बाह्य दृष्ट दुःख का कारण व्यक्ति की ईमानदारी है। इनमें परस्पर कोई कार्य-कारण भाव नहीं है। बाह्य सुख-दुःख का कारण कुछ और हो सकता है, यह नहीं। जिज्ञासा शिष्य की : प्रज्ञा गुरु की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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