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सुख का मूल हेतु पुण्य-कर्म है, पवित्र आचरण है,--यह आगम की भाषा यथार्थ एवं सत्य के अनुभव की भाषा है। पुण्य-कर्म परलोक के स्वर्ग का ही निर्माण नहीं करता है, अपितु यहाँ इस जन्म में भी स्वर्ग का निर्माण करता है। पुण्य-कर्म का फल मरणोत्तर दूर भविष्य में ही पाने जैसा नहीं है, अपितु वह पुण्य होने से तत्काल एवं तत्क्षण ही अन्तर्मन में आनन्द की अमृत वृष्टि करता है। पुण्यशील, सदाचारी, प्रामाणिक व्यक्ति जहाँ भी जाता है, जहाँ भी रहता है, सर्वत्र प्रसन्न रहता है। आनन्द का भागी होता है। इसके विपरीत पापात्मा पापाचारी व्यक्ति जहाँ भी जाता है, जहाँ भी रहता है, सर्वत्र अप्रसन्न ही रहता है, दुःख का भागी होता है। उसके लिए लोक, परलोक दोनों ही जगह नरक है। पापात्मा, धूर्त और पाखण्डी को सब लोग अविश्वास की निगाहों से देखते हैं, और उसकी हर बात एवं हर हरकत पर कड़ी निगरानी रखते हैं। यह अपयश और अविश्वास नरक नहीं, तो और क्या है? अपकीति मरण से भी बढ़ कर दुःखकर है। गीता में श्री कृष्ण कहते हैं-- "संभावितस्य चाकोतिर्मरणादतिरिच्यते।"
जैन आगम कहते हैं, सम्यकदर्शी आत्मा नरक में रहकर भी स्वर्ग में है, और मिथ्यादृष्टि स्वर्ग में रहकर भी नरक में है। जैन-दर्शन अन्तरंग चेतना को महत्त्व देता है। सम्राट् श्रेणिक नरक में भी नरक की पतनशील भावनाओं और वेदनाओं की दुर्वृत्तियों से परे हैं। भरत चक्रवर्ती जैसे महान् अध्यात्मचेता पुरुष सिंहासन पर रहकर भी सिंहासन की पतनकारिणी आसक्ति से दूर रहे हैं। और उधर स्वर्ग में भी संगम जैसे देव क्या हैं? क्या ऐसे देव, वस्तुतः अन्तर्मन के पुण्य-भावों की दृष्टि से देव हैं? यदि वे देव हैं, तो फिर दानव और राक्षस कौन होंगे? आगम साक्षी है, स्वर्ग में भी हजारों विकृत मनोवृत्ति के देव ऐसे हैं, जो अपने प्राप्त वैभव से सन्तुष्ट नहीं हैं, अतः वे अन्य देवताओं के यहाँ चोरी करते हैं, और फिर इधर-उधर अंधकार में छुपते फिरते हैं। अन्त में पकड़े जाते हैं और देवराज इन्द्र से दण्ड पाते हैं। खूब पिटाई होती है। ऐसे अप्रामाणिक जीवम जीने वाले देवों में क्या है?
अस्तु स्पष्ट है, पुण्य एवं पवित्र कर्म ही सुख का कारण है। "इध नन्दति, पेच्च नन्दति, कुतपुञ्जी उभयत्थ नन्दति।" और दुःख का कारण पाप एवं अपवित्र कर्म है। "इध सोचति पैच्च सोचति, कतपावो उभयत्थ सोचति।" यह केवल अर्थवाद नहीं है। चिर अतीत से अनुभव की कसौटी पर परखा हुआ अविचल सत्य है। आज भी हर इन्सान तटस्थ होकर अपने अनुभव की कसौटी पर इस सत्य को परख सकता है। सुख में और सुखाभास में रात-दिन का अन्तर है। पापाचारजन्य सुख, सुख का भ्रम है, अतः वह सुख नहीं, सुखाभास है। सुखाभास अन्ततोगत्वा दुःख ही होता है। वास्तविक सुख पुण्य-कर्म है, जो कभी सुखाभास नहीं होता।
जिज्ञासा शिष्य को : प्रज्ञा गुरु की
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