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________________ है। नरक में होने वाले दुःखों के भय से जो व्यक्ति अहिंसा आदि व्रतों का पालन करता है, वह भयमुक्त कहाँ है ? वह भय से पीड़ित है, सहज नहीं है । और जहाँ भय है, भय-मूलक द्वेष है, वहाँ वीतरागता कहाँ हो सकती है ? और जो स्वर्गादिसुख के लिए अहिंसा आदि संयम की साधना करता है, वह भी वीतराग नहीं है । क्योंकि सुख का राग भी अपने में एक बहुत बड़ा राग है, अतः जहाँ राग है, आसक्ति है, कामना है, वहाँ भी वीतरागता नहीं है। और जहाँ वीतरागता नहीं है, वहाँ धर्म भी नहीं है । आत्मा का निज स्वभाव ही तो धर्म है 'वत्सहाओ धम्म' के सिद्धान्तानुसार। और राग आत्मा का निज स्वभाव नहीं है, परभाव है, अतः वह धर्म नहीं है । रागयुक्त संयम की साधना से पुण्य हो सकता है, धर्म नहीं। पर वस्तु में इष्ट-अनिष्ट की परिकल्पना करना, शास्त्रदृष्टि से मोह का विकल्प ही है और कुछ नहीं । इस सम्बन्ध में आचार्य अमितगति का वचन मननीय है : परः । "इष्टोऽपि मोहतोऽनिष्टो भावोऽनिष्टस्तथा न द्रव्यं तत्त्वतः किंचिदिष्टानिष्टं हि विद्यते ॥" यही बात भोजक और अभोजक के सम्बन्ध में है । बाहर में भोक्ता होता हुआ भी वीतराग अन्दर में अभोक्ता है । और सराग आत्मा बाहर में अभोक्ता होता हुआ भी अन्दर में भोक्ता ही रहता है । " द्रव्यतो भोजका कश्चिद् भावतोऽस्ति भावतो भोजकस्त्वन्यो द्रव्यतोऽस्ति -- योगसार प्राभृत ५।३६ १०० त्वभोजक: । त्वभोजकः ।। " व्यवहार चारित्र प्रवृत्ति - निवृत्ति रूप है । इसमें करने, न करने का संकल्प स्पष्टतः परिलक्षित होता है । इसमें आग्रह से मुक्ति नहीं है, अतः समत्व नहीं है । समत्व वहीं होता है, जहाँ आत्मा मोह और क्षोभ से मुक् होता है । उक्त मोह-क्षोभ से मुक्त स्वरूप समत्व के होने पर यदि कोई प्रवृत्ति या निवृत्ति होती भी है, तो वह सहज होती है, स्वभावसिद्ध होती है, अतः उसमें विधि - निषेध का संकल्पजन्य आग्रह जैसा कुछ नहीं होता । वस्तुतः यही निर्मल, शुद्ध, आत्मस्वरूप वीतराग भाव निश्चय चारित्र है । Jain Education International - योगसार प्राभृत ५।५५ - प्रवचनसार, गाथा ७ उक्त विवेचन पर से स्पष्ट हो जाता है कि स्वरूप- लीनता निश्चय है, और नियम - लीनता व्यवहार है । स्वरूप-लीनता इसीलिए देश - कालादिजन्य परिवर्तन से परे है, चूंकि वह स्वरूप - लीनता है । स्वरूप में भला क्या परिवर्तन होगा, और वह क्यों होगा ? स्वरूप हमेशा क्या और क्यों के विकल्पों से परे होता है । चारित्रं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समो त्ति निदिट्ठो । मोहक्खो ह विहीणो, परिणामो अप्पणो हु समो ॥ परिवर्तन व्यवहार में होता है। क्योंकि व्यवहार हमेशा से ही देश, काल आदि से प्रभावित होता आया है । एक युग का व्यवहार दूसरे युग में अव्यवहार हो जाता है । एक देश की मान्यताएँ दूसरे देश में अमान्य हो जाती हैं। आज के युग में बहन- भाई का वैवाहिक सम्बन्ध जघन्य अपराध माना जाता है । किन्तु, जैन पुराण तथा वैदिक पुराणों की अनुश्रुतियों के अनुसार यौगलिक अकर्मभूमि आदि के युग में ऐसा कुछ नहीं था । उस के लोक-जीवन में यह एक सामान्य बात थी । इसका न्याय या अन्याय से कुछ भी सम्बन्ध नहीं था । युग जैन, बौद्ध और वैदिक पुराण कहते हैं कि स्वर्गलोक में स्त्रियाँ कामचारा हैं। एक देवी पहले एक देव की भोग्या होती है, वही बाद में दूसरे देव की भोग्या भी हो जाती है । स्वर्ग में यह सब न्यायोचित है। कभी भारतभूमि पर भी यही स्थिति थी । महाभारत और वाल्मीकि रामायण आदि इसके साक्षी हैं । द्रौपदी के पाँच सागर, नौका और नाविक For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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