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________________ पति भी एक युग में विहित माने गये थे । द्रौपदी के समान कितनी ही अन्य नारियों का उल्लेख भी महाभारत में हैं। यह सब देश, काल का खेल है । इस खेल का प्रभाव पड़ता है समाज पर । और, इसी प्रभाव से समाज अपने विधि-निषेधों की अच्छाई-बुराई का पथ बदलता रहता है । यह स्थिति लोक-जीवन की ही नहीं है । धार्मिक परंपराओं के जीवन में भी सामाजिक धरातल पर ऐसा ही कुछ होता रहता है। धार्मिक क्षेत्र के रंगमंच पर भी विधि - निषेधों के पात्र अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार यथाप्रसंग आते-जाते रहते हैं । आदिम मानव सभ्यता के युग में प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने साधुचर्या कुछ विधि-निषेध प्ररूपित किये थे, दूसरे तीर्थंकर भगवान् अजितनाथ ने उनमें कुछ को बदल दिया। नियमों की कठोरता को मृदु बना दिया । और यह मृदु भाव की परंपरा थोड़े-बहुत हेर-फेर के साथ तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ तक चलती आई। अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने पुनः मृदुभाव की परंपरा को बदल कर उसे कुछ और अधिक कसा। पहले हर किसी रंग रूप एवं मूल्य का वस्त्र भिक्षु पहन सकते थे । भगवान् महावीर ने जिन कल्प के आधार पर नग्नता पर बल दिया । और जब पार्श्वनाथ का संघ महावीर के संघ में मिला, तो आपवादिक रूप में श्वेत वस्त्र को मान्यता मिल गयी। पहले वर्षावास के सम्बन्ध में कोई एक नियत मान्यता नहीं थी। भगवान् महावीर ने उसे चार मास के रूप में, विशेष स्थिति के अनुसार ७० दिन के रूप में नियन्त्रित कर दिया। भगवान् महावीर के बाद भी अनेक आचार्यों ने अपने-अपने देश काल के अनुसार परिस्थितिवश परम्परागत नियमों में परिवर्तन किये हैं, जैन इतिहास इसका मुक्त घोष से साक्षी है । दिन के तीसरे प्रहर में गोचरी करने का नियम बदला या नहीं ? दिन में एक बार भोजन और जलपान करने का नियम, जो आज भी दिगम्बर- परम्परा में प्रचलित है, श्वेताम्बर-परम्पराओं में बदला या नहीं ? वस्त्र न धोने का नियम भी बदला है । अब साधुओं द्वारा वस्त्र धोये जाते हैं, जब कि आचारांग सूत्र में इसका निषेध है । निशीथ सूत्र में लिखने का गाने का निषेध है साधु के लिए। और आज क्या है, यह सबके समक्ष है । आचार्य जिनदास ने निशीथचूर्ण में कहा है कि सिन्धु जैसे देशों में यदि भिक्षु बढ़िया श्वेत वस्त्र धारण करता है, तो कोई आपत्ति नहीं है। क्योंकि वहाँ की सर्व साधारण जनता भी अच्छे वस्त्र पहनती है । परन्तु कुछ अन्य देशों में अच्छे बढ़िया वस्त्र भिक्षु को नहीं धारण करने चाहिएँ, क्योंकि वहाँ दरिद्र जनता होने से चोरी का उपद्रव हो सकता है । इसी प्रकार एक जाति एक देश में अस्पृश्य समझी जाती है, तो वही दूसरे देश में स्पृश्य मानी जाती है । जैन-धर्म में जाति सम्बन्धी इस स्पृश्यास्पृश्य व्यवस्था को कोई मान्यता नहीं है । फिर भी परिस्थितिवश समस्या का समाधान करना हो, तो इस सम्बन्ध में जो जहाँ का लोकाचार हो, तदनुकूल वहाँ वैसा कर लेना चाहिए । आचार्यकल्प पं० आशाधरजी ने सागर धर्मामृत में कहा है कि जैनों को अपने-अपने देश, क्षेत्र और जाति आदि के सभी लोकाचार मान्य हैं। हाँ, यह अवश्य देख लेना चाहिए कि मूल सम्यक्त्व में कोई हानि न होने पाये और न स्वीकृत व्रतों में कोई दूषण लगे : " सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिर्न, यत्र न व्रतदूषणम् ।। " अनेक जैन आचार हैं; जो व्यवहार- पक्ष के हैं, उनमें सर्वत्र यही मार्ग अपनाया गया है। परिस्थिति आने पर कुछ जल धाराओं को पैदल पार किया जा सकता है और गंगा जैसी कुछ विशाल जल-धाराओं को नौका की सवारी से पार किया जा सकता है । साधु-साध्वी परस्पर न छुएं। किन्तु डूबतों को बचाने के लिए या रोगादि में सेवा-शुश्रूषा के लिए यह सब कुछ किया जा सकता है । व्यवहार नियमों की साधना में ऐकान्तिक जैसा कुछ नहीं है । यहाँ परिस्थिति ही एक मुख्य है । परिस्थिति के अनुसार हर नियम के साथ अपवाद है । जितने उत्सर्ग हैं, उतने ही अपवाद हैं--" जावइया उस्सग्गा तावइया चैव हुंति अववाया ।" किन्तु इन सब व्यावहारिक परिवर्तनों के मूल में एक बात ध्यान में रखने जैसी है कि साधक का अन्तर्हृदय पवित्र है कि नहीं ? अंतरंग में वीतराग भाव सुरक्षित है कि नहीं ? यदि मन पवित्र है, वीत-रागभाव सुरक्षित है, तो सब ठीक है । अन्यथा, तो अन्यथा है ही । ऊपर तरंग, भीतर प्रशान्त सागर १०१ Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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