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________________ हर श्रमप्रधान कार्यों में स्थूल हिंसा के कुछ अंश देख कर उनसे खुद भी अलग होने लगता है, और दूसरों को भी पाप-पाप का ढोल बजाकर निष्क्रिय बना देता है। कुछ भाई प्रश्न कर रहे थे कि भगवान् महावीर की पुण्यभूमि बिहार, बंग और उत्कल आदि में, जहाँ जैनधर्म का इतना प्रचार-प्रसार था, हजारों, साधु यत्र-तत्र विहार कर के धर्म की ज्योति प्रज्वलित कर रहे थे, धर्म कैसे नष्ट हुआ ? आज इन प्रान्तों के मूल निवासी कोई भी जैन क्यों नहीं हैं ? क्या हुआ ऐसा कि यहाँ सब कुछ लुप्त हो गया ? मैंने कहा कि यह साधुओं की निष्क्रियता और धर्म की गलत व्याख्याओं का परिणाम है। बीच के साधसमाज ने किसान, लुहार, कुम्हार, सुनार, राजा, सेनापति आदि के हर काम को धर्म के विरुद्ध एकान्त पाप ठहरा कर वजित करार दे दिया। कृषि में, शिल्प में, उद्योग-धंधो में, राष्ट्र-रक्षा में, अन्याय-अत्याचार के प्रतिकार में एकान्त पाप का नारा बुलंद किया और इन सबको नरक का हेतु बनाया। उसका यह परिणाम हुआ कि सर्वसाधारण जनता का जैनत्व से संपर्कसूत्र टूट गया। जब कि भगवान् महावीर के आनंद जैसे अनेक कृषि एवं पशुपालन करने वाले परम श्रावक थे। शकटार जैस कुंभकार शिल्पी उच्च कोटि के उपासकों मे थे। चेटक जैसे राजा और युद्धवीर सेनापति बारह व्रतधारी श्रमणोपासक थे। भगवान् का धर्म तो हर क्षेत्र में फैला हआ था। भगवान् कर्म की पृष्ठभूमि में रहने वाले भावों को महत्त्व देते थे, जबकि पीछे से उन्हीं के अनुयायी भावना को छोड़ कर केवल कर्म के बाह्य अच्छे-बुरे रूप में उलझ गए। सबको पापी और अपने को धर्मात्मा घोषित करने का पाखण्ड खड़ा कर दिया, जो आज भी यत्र-तत्र देखने को मिलता है। जिस धर्म के पास जनता नहीं रहती, चन्द लोग ही जिसके उपासक रह जाते हैं, उस धर्म का भविष्य सुरक्षित नहीं रह सकता। जब पूर्व-भारत में कुछ धर्म विरोधी राजाओं का भिक्षओं पर आक्रमण होने लगा, उन्हें मारा जाने लगा, तो जनता में से कोई भी बचाव के लिए आगे नहीं आया। जरा भी सद्भावना नहीं थी, जनता के मन में। धर्मध्वजी तन कर खड़े नहीं रह सके। प्राण-रक्षा के मोह में भिक्षु भाग खड़े हुए। विराट् प्रदेश सूना हो गया भिक्षुओं से। और, इसके साथ ही वहाँ जैन-धर्म की ज्योति धूमिल होतेहोते बुझती चली गई और बुझ ही गई। भगवान् महावीर तो केवलज्ञानी थे। वे यदि जानते कि कृषि महारंभ है, और महारंभ सीधा ही नरक का पथ है, तो आनन्द तथा महाशतक आदि को कैसे अपने तीर्थ में सम्मिलित करते? अस्सी-अस्सी हजार गायों को रखने वाले महाशतक जैसे हिंसाकर्मी लोगों को कैसे अपने संघ में आदर का स्थान देते ? भगवान् इस प्रकार गलत वृत्ति से किए जाने वाले अनर्थदण्ड का विरोध करते हैं। गृहस्थ के लिए अर्थदण्ड की एकान्त विरक्ति का अनिवार्य नियम नहीं है। परन्तु, अनर्थदण्ड का त्याग करना तो अनिवार्य है। अहिंसा का गलत आग्रह एवं बोध जैन इतिहास में जैन धर्म की प्रगति का सबसे बड़ा अवरोधक रहा है। इस गलत बोध ने आगे चलकर तो बड़ा ही गलत मोड़ लिया। भूखे को भोजन कराने में पाप। प्यासे को पानी पिला देने में पाप। सर्दी में ठिठरते गरीब भाई-बहन को वस्त्र देने में पाप। यहाँ तक कि रोगी को दवा देने में भी पाप बताया जाने लगा। इसलिए कि असंयमी को सहयोग देने में पाप ही तो होगा। और क्या होगा? इस पर से स्पष्ट हो जाता है कि कर्म की शुभ-अशुभ भावनाओं को तिलांजलि दे कर केवल कर्म के स्थूल बाह्य रूप से चिपट कर रह गए। और इस चिपटाव ने जैन-धर्म को सर्वसाधारण जनता में अव्यवहार्य बना दिया। एक युग था, जब जैन धर्म भारत और भारत के बाहर दूर-दूर तक के क्षितिजों को छूता था। सब ओर उसकी धर्म-दुन्दुभि बज रहीं थी। ६४० ईस्वी के लगभग चीनी बौद्ध भिक्षु हुएनसाँग जब भारत आया था, तो उसे गांधार--आज के अफगानिस्तान में श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही जैन साध मिले थे, जो वहाँ अच्छी प्रतिष्ठा पाए हए थे। पेशावर और काश्मीर में भी उसकी जैन मुनियों से भेंट हुई थी। बौद्ध-साहित्य में लिखा है कि बर्मा का एक राजा जैन था। इस पर से प्रमाणित होता है कि जैन धर्म की प्रसार सीमाएं कितनी दूर-दूर थीं और वहाँ के राजवंशों में भी उसका प्रवेश था। यह गौरव स्थिति क्यों समाप्त हुई ! कारण एक मात्र यही है कि शुद्ध जैनत्व भावपक्ष से शून्य हो कर बाहर के क्षुद्र क्रिया-काण्डों के जंगल में भटक गया, जनजीवन में अव्यवहार्य हो गया, फलत: सिमटता-सिमटता भारत के इने-गिने प्रदेशों में, वह भी अमुक छोटे से व्यापारी वर्ग में ही अवरुद्ध एवं सीमित रह गया । ९४ सागर, नौका और नाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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