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________________ यदि कृषि तथा कुम्हार, लहार, माली आदि के कर्मकर्ता किसान और कारीगर, जघन्य पाप क्षेत्र के व्यक्ति होते तो भगवान ऋषभदेव, जब कि वे गृहस्थ में भी तीन उत्तम ज्ञान के धर्ता थे, क्यों इन पाप-कर्मों का उपदेश देते, जनता को सिखाते ? पाप-कर्म करने वाले की अपेक्षा पाप-कर्म का उपदेष्टा अधिक पापी होता है। न भगवान ये सब सिखाते, और न आज तक यह पाप-कर्म की परंपरा इतनी लंबी होती। स्पष्ट है जैन धर्म में गृहस्थ के लिए ये निषिद्ध नहीं थे। अपितु, सात्विक श्रम के द्वारा आजीविका के साधन होने से मानवजाति को चोरी, डकैती, हत्या आदि अनैतिक पाप-कर्मों से बचाने वाले थे। जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति में स्पष्ट लिखा है कि ऋषभदेवजी ने यह सब प्रजा के हित के लिए उपदेश दिया था। और जिस में हित बुद्धि है वह शुभ होता है या अशुभ, पुण्य होता है या पाप? कुछ तो दिल-दिमाग से सोचने का कष्ट करना चाहिए। क्या वे बीच के धर्म-धुरंधर, या आज के तथाकथित पाप भीरू भगवान् ऋषभदेव से भी अपने को अधिक ज्ञानी समझते हैं, जो सब ओर नकार की तटबंदी करके जैनत्व के विराट् क्षीरसागर को गाँव की क्षुद्र तलैया बना रहे हैं। धर्म का गौरव ये जीवनोपयोगी कर्म नष्ट नहीं करते हैं, अपितु वे लोग नष्ट करते हैं, जो ठाली बैठे धर्म के नाम पर बाल की खाल निकाला करते हैं। व्यर्थ के तर्क-वितर्क से जन-मानस को भ्रान्त करते हैं। एक जगह की बात है, दो भाई दर्शन करने आए। एक भाई पास आकर चरण छूने लगा तो दूसरा भाई बोला, अरे रे, यह क्या कर रहा है। महाराज को मत छुओ। मैंने पूछा, क्या बात है? उस भाई ने बड़ी गंभीर मुद्रा में बताया, महाराज यह अभी नीचे पानी पीकर आया है। वह कच्चा पानी है पेट में, फासू कहाँ हआ है अभी इतनी जल्दी। मैं हंस पड़ा, विचित्र बात है। क्या साध, संघट्टे का दोष बचाने के लिए हर आगंतुक से पूछे कि वह क्या खा कर और पी कर आया है ? और उसकी उदरदरी में यदि कोई सचित अभी है, तो उससे उक्त सूक्ष्म तर्क के आधार पर पूछा भी तो नहीं जा सकता। उसे पूछना और उसका उत्तर में बोलना भी तो दोष होगा इस तरह। एक बार एक भाई ने ऐसा ही विचित्र तर्क उपस्थित किया था कि गर्भवती स्त्री का साध्वी को छूना ठीक नहीं है। क्या पता, गर्भ में लड़का हो तो उसके संघट्टे का, स्पर्श का दोष लग सकता है। इस प्रकार बहुत बारीक कातने का गौरव अच्छी-से-अच्छी धर्म-परंपरा को अव्यवहार्य एवं हास्यास्पद बना देता है। अपनी आडंबरपूर्ण थोथी मान्ययाओं के कारण धर्म के प्रसार का ह्रास हुआ है। किन्तु आज का भिक्षु दंभ करता है कि हमारा आचार, हमारा क्रियाकाण्ड इतना उग्र है कि विदेशों में या भारत के सीमा प्रदेशों में नहीं पल सकता। इसलिए हम उन विकट प्रदेशों में नहीं जा सकते, ताकि जैन-धर्म का प्रचार-प्रसार हो। मैं पूछता हूँ, बिहार, बंगाल में तो आपका आचार-विचार अच्छा पलता था, वहाँ तो भगवान् महावीर और उनके हजारों साधुसाध्वी विहार करते थे, वहाँ से आप क्यों भाग खड़े हुए? प्रश्न आचार का उतना नहीं है, जितना कि जीवट का है, सही दृष्टि एवं सही बोध का है। विकट से विकट परिस्थितियों में भी जीवट के धनी एवं सही बोध के साधक अपना आचार-विचार पाल सकते हैं, और धर्म का उचित प्रचार-प्रसार कर सकते हैं। अपेक्षा है साहस के साथ, धर्म के साथ कर्म में, और कर्म के साथ धर्म में पूर्ण शक्ति से जूझने की। उक्त लंबी चर्चा का एक ही मूल तत्त्व है कि कर्म के अच्छे-बुरे का मूल बाहर के कर्म में नहीं है, कर्म से पूर्व एवं कर्म के अन्त तक कर्म के कर्ता के मन में जो अच्छी या बुरी भावधारा बह रही है, उसमें है। हर कर्म पहले मन में ही विचार रूप में अंकुरित होता है। 'मनो पुव्वंगमा घम्मा।' मन को पवित्र एवं प्रबुद्ध रख कर प्राप्त कर्म किए जाओ, फिर कहीं पाप नहीं है। पाप और पुण्य अशुभ एवं शुभ भावों पर आधारित होते हैं--'शुभः पुण्यस्य अशुभः पापस्य।' कर्म का मूल मनोभाव में ९५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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