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________________ मानव-जीवन का उतार-चढ़ाव उसके अपने भावों एवं विचारों के उतार-चढ़ाव पर निर्भर है। जैसा विचार वैसा आचार, जैसा आचार वैसा व्यवहार, जैसा व्यवहार वैसा संस्कार--यह एक लंबी शूखला है, जो मनुष्य को अच्छे या बुरे जीवन-निर्माण की दिशा में गतिशील करती है। शरीर जड़ है, उसमें पाप-पुण्य का खेल नहीं है। इन्द्रियों की ज्ञान-शक्ति सीमित है, वे केवल अपने-अपने शब्द, रूप आदि विषयों का ज्ञान करने के बाद आगे होने वाले अच्छे-बुरे तथा सुख-दुःख के विकल्पों के करने में अशक्त हैं। उनमें अच्छे या बुरे भावों के करने का सामर्थ्य नहीं है। मन ही एक ऐसा है, जो शुभ-अशुभ भावों के विकल्पों का सूत्रधार है। आत्म-चेतना का प्रकाश मन को ही मिला है। इन्द्रियजन्य ज्ञान के बाद उसके विषयों पर अच्छेबुरे की मोहर मन ही लगाता है। अतः मन ही बन्ध है, जब वह राग-द्वेष के विकल्पों से विषयासक्त होता है। और मन ही मोक्ष है, जब वह स्वभावरूप हो कर विषयों से विरक्त होकर आत्म-लीन होता है। बन्ध-मोक्ष का हेतु मन अर्थात् भाव ही को आचार्यों ने माना है--'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।' ____ दो व्यक्ति एक बाग में पहुँचे। दोनों ने ही अपनी आँखों से वृक्षों पर फूल भी देखे हैं, फल भी देखे हैं । यहाँ तक इन्द्रियजन्य ज्ञान के रूप में वस्तु-बोध दोनों का एक जैसा है। अब आगे देखिए। एक कहता है, फूल और फल अच्छे हैं, लेने चाहिएँ। यहाँ राग की रेखा उभर रही है। दूसरा कहता है, खरीद लो, चोरी नहीं करनी चाहिए। माली को देखो, मैं भी खरीद लूंगा। दूसरे की इच्छारूप रागात्मक वृत्ति नीति के क्षेत्र में है। किन्तु पहले ने चोरी से फल-फल तोड़ ही लिए मना करने पर भी, यह राग अनीति के क्षेत्र में पहुँच गया है। वह फल-फूल तोड़ कर चला, किन्तु फिर वापस लौट कर आया कि चलो, परिवार के लिए और भी ले चलें, सब घर वाले भी खुश हो जाएंगे। और उसने वापस लौट कर फल-फूल तोड़ कर झोली भर ली और हंसता हुआ चल दिया। यह हरकत अन्याय, अत्याचार के शिखर पर पहुँच गई। आपने देखा, प्रथम के दोनों द्रष्टाओं के देखने-सोचने के विचारों में कितना अन्तर पड़ गया है, मन के भावों के कारण । भगवान महावीर के दो प्रमुख शिष्य हैं, एक है गौतम और दूसरा है गोशाला। दोनों ही भगवान् के पास रहे हैं, दर्शन किये हैं, वाणी सुनी है। पर दोनों में कितना अन्तर? गोशाला, जिसके प्राणों की रक्षा एक बार भगवान् ने की थी, इतना दुर्मनोवृति का व्यक्ति है कि श्रावस्ती में एक दिन अपने तेजोबल से भगवान् के दो साधुओं को समवसरण में भस्म कर देता है, और भगवान् पर भी तेजोलेश्या छोड़कर उन्हें भी भस्म करने का प्रयत्न करता है। यह ठीक है कि भगवान् भस्म न हुए, पर उसने तो भस्म करने की वृत्ति से पाप का बन्ध कर ही लिया। और गौतम है कि भगवान के प्रति इतना अनुराग कि जिसकी तुलना अन्यत्र कहीं हो नहीं सकती। गोशाला भगवान् को पा कर भी भटक गया। और गौतम भगवान् को पा कर संसार सागर से पार हो गया। भगवान् वीतराग हैं। दोनों के प्रति सम हैं। पर, दोनों अपने-अपने भावों से अलग-अलग स्थिति में पहुँच जाते हैं। एक व्यक्ति मन में राम की बात सोचता है, मुंह से राम बोलना चाहता है, पर जल्दी में अचकचा कर मुंह से राम की जगह रावण निकल जाता है। बताइए उसने वस्तुतः निश्चय में राम बोला है या रावण ? स्पष्ट है भाव में राम है तो वह राम बोलने के शुभ भाव का अधिकारी है। महर्षि वाल्मीकि डाक थे, बड़े ही भयंकर। नारद का उपदेश पाकर रामनाम जपने लगे, तो राम की जगह मरा-मरा बोलने लगे। पर उसी में उन्हें राम की प्राप्ति हो गई। 'उलटा नाम जपत जग जाना ! भयऊ वाल्मीकि ब्रह्म समाना।' धर्म के पालन और प्रचार में भी मानव की भावधारा का ही महत्त्व है। जब व्यक्ति के मन में सहज दृढ़भावना होती है, धर्म के प्रति समर्पण की ज्योति प्रज्वलित रहती है, अपने सुख-दुःख की चिन्ता छोड़ कर प्रभु के सन्देशों को घर-घर द्वार-द्वार पहंचाने का मन में तूफान होता है, तब वह धर्म के प्रचार-प्रसार में अपना जीवन होम देता है। तब उसके पुरुषार्थ से धर्म के वे फूल खिलते हैं, जो अपनी महक से जन-जीवन को मुग्ध कर देते हैं। ऐसा साधक धर्म का सहज रूप जनता के सामने रखता है, और सर्व-साधारण को उसका समान भागीदार बनाता है। वह पापपुण्य की व्याख्या भावों में करता है, बाहर में रोजी-रोटी के धंधो में नहीं करता। परन्तु, जब अंदर में दुर्बलता होती है, मानव सूख और आरामतलबी का शिकार हो कर परोपजीवी निष्क्रिय होने लगता है, तो वह बाहर के कर्म का मूल मनोभाव में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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