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________________ इसके विपरीत यह भी हो सकता है, कि घर की अपेक्षा वहाँ सुख-साधन अच्छे मिले हों, आसन-शयन भोजन आदि बहुत ही रुचिकर प्राप्त हुए हों, कल्पना से कहीं अधिक स्वागत सत्कार हुआ हो। इन सबके लिए सत्कार कर्ता के प्रति प्रेम एवं समादर का सद्भाव तो अपने मन में सुरक्षित रखिए, किन्तु प्राप्त सुख-साधनों का मोह भूलकर भी अपने मन एवं मस्तिष्क पर मत जमने दीजिए। यदि आप उक्त मोह के विकल्पों से मन को बिना खाली किए घर लौटे हैं, तो बहुत बुरा होगा। आप को अपना घर अब अच्छा नहीं लगेगा। मां से झगड़ेंगे, बहन से झगड़ेंगे, कि तुम्हें कुछ नहीं आता बनाना। बिल्कुल बुद्ध हो तुम। और पत्नी के पीछे तो भूत-प्रेत की तरह लग जाओगे। कभी उसे गंवार, तो कभी फूहड़ बताओगे। उसके बनाये भोजन में हर दिन सौ गलतियाँ निकालोगे । और, इस तरह अपने घर के मधुर वातावरण को तलख बना डालोगे। यदि अपने घर की स्थिति अभावग्रस्त है, तो उन जैसे सुख-साधन न जुटा पाने के कारण तुम स्वयं हीन-भावना से ग्रस्त हो कर एक प्रकार के विक्षिप्त मानसिक रोगी बन जाओगे। एक लम्बी चर्चा मैंने उदाहरण के रूप में इसलिए की है, कि स्वस्थ एवं सुखद मस्ती भरा जीवन जीने के लिए लोकजीवन में भी ईधर-उधर के मान-अपमान आदि के विकल्पों से मन को खाली करना कितना आवश्यक हैं। मन को न सत्कार से भरना अच्छा है, न तिरस्कार से। जीवन-यात्रा में दोनों का विसर्जन करके ही इधर से उधर जाओ या उधर से इधर आओ। किसी भी कर्मक्षेत्र में प्रवेश करो, तो पहले के चाल कर्म के विकल्प से मुक्त हो कर प्रवेश करो। विगत भूत-कर्म का भूत यदि पीछे लगा रहा, तो प्राप्त कर्म का आनंद तुम्हें नहीं मिल पाएगा। विभक्त मन से वह कर्म अच्छी तरह किया भी न जा सकेगा। जो व्यक्ति घर को दिमाग पर लादकर व्यवसाय-केन्द्र पर ले जाएगा और व्यवसाय केन्द्र को घर पर, तो वह न घर का रहेगा, न व्यवसाय का। धोबी का कूत्ता न घर का, न घाट का । जो दिमाग को विचारों का कूड़ा घर बनाये रखता है, वह वस्तुत: कूड़ा घर ही बन जाता है। और ऐसे कूड़ा घर से कर्म की निर्धारित फल-निष्पत्ति कभी भी यथोचित नहीं हो सकती। अस्तु, लोक-जीवन में भी 'निसीहि' की उपासना अपेक्षित है। यह विकल्पों के विसर्जन की सर्वोत्तम प्रक्रिया है। जैन-साधना में प्रतिक्रमण का बहुत बड़ा महत्त्व है। यह दुर्विचारों एवं कुसंस्कारों के परिमार्जन की एक आध्यात्मिक साधना है। प्रातःकाल से प्रारंभ होने वाली जीवन-यात्रा में दिन भर में जो कुछ भी इधर-उधर के दुर्विकल्प अन्तर्मन में संचित हो जाते हैं, सायंकालीन प्रतिक्रमण में आत्मालोचन के द्वारा उन्हें साफ कर दिया जाता है और रात्रि के दुर्विकल्पों को प्रातःकालीन प्रतिक्रमण में। यह सुबह-शाम 'अकरणिज्ज' का 'मिच्छामि दुक्कडं' मन को खाली करता है, उसे हल्का और शुद्ध बनाता है। पाप कर्मों की बार-बार स्मृति ग्लानि को जन्म देती है और ग्लानि जन्म देती है हीन-भावना को। और हीन-भावना मानव जीवन का सबसे भयंकर अभिशाप है, जो उसे सब तरह से बर्बाद कर देता है। प्रतिक्रमण साधक को इस तरह व्यर्थ ही बर्बाद होने से बचाता है। उसमें पवित्रता की भावना जगाता है, और नये उत्साह की तरंग के साथ भविष्य में सजगतापूर्वक सत्कर्म करने की प्रेरणा देता है। अशुभ का विसर्जन होना चाहिए। इतना ही नहीं, अशुभ की स्मृति का भी विसर्जन होना आवश्यक है। कृत अशुभ की बार-बार स्मृति भी चेतना को धूमिल बना देती है। जिस हाथ से मल धोया है, उसे धो दिया और वह साफ हो गया। बस, शुद्धि का कार्य पूरा हो गया। धोने के बाद भी यदि हाथ में लगे मल को याद करता रहेगा, तो बस, विनष्ट हो जाएगा मानव । तन का स्नान, मल और मल की स्मृति दोनों को ही साफ करने के लिए है। इसी प्रकार प्रतिक्रमण हो या इसी से सम्बन्धित अन्य कोई धार्मिक साधना हो, वह भी मानव मन को पाप और पाप की स्मृति दोनों से मुक्त करती है। भविष्य में कोई पाप कर्म न होने पाए, यह सजगता एक अलग बात है। और हर दिन अतीत के कृत पापों का रोना रोते रहना, अलग बात है। प्रतिक्रमण, जप, प्रभु-स्मरण आदि करके भी यदि किसी को यह विश्वास है कि मैं शुद्ध नहीं हुआ हूँ, वही पुराना पापी का पापी हूँ और मलिन का मलिन हूँ, तो इसका अर्थ है कि उसे धर्म-साधना की पवित्र शक्ति में विश्वास नहीं है। गंगा में डुबकी लगा कर भी यदि गंदगी लगे रहने का रोना है, तो उस पागल की कोई चिकित्सा नहीं है। योग की एक प्रक्रिया है, विरेचन की। प्राणायाम में अंदर की अशुद्ध वायु को विरेचन के द्वारा बाहर में विसर्जित किया जाता है। विरेचन का अर्थ है, खाली करना। यह एक श्वास का व्यायाम है, किन्तु योग इतना ही नहीं है, जीवन में से अशुभ संकल्पों, विचारों एवं विकारों का भी विरेचन होना चाहिए। यही वास्तविक अध्यात्मयोग है। शुभ का पूरक और अशुभ का विरेचन ही जीवन में समरसता ला सकता है। शुभ का पूरक होने के साथ सागर, नौका और नाविक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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