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मन्दिरों एवं उपाश्रयों में आते समय 'निसीहि-निसीहि' कहना चाहिए, यह एक विधान है, जैन-धर्म के आचार-ग्रन्थों का। यह विधान मौखिक रूप में आज भी प्रायः किया जाता है रूढिचुस्त धार्मिक सज्जनों द्वारा । परन्तु, इस मौखिक उच्चारण का आन्तरिक क्या मर्म है, क्या हेतु है, इस संबंध में ठीक जानकारी प्रायः कम ही देखी जाती है। कहना है, बस, इसलिए कहा जाता है। पर, क्यों कहा जाता है, इसका कुछ अता-पता नहीं है। कल ही की बात है। एक दिगम्बर जैन श्रावक इस सम्बन्ध में जिज्ञासा कर रहे थे।
देव मन्दिरों, उपाश्रयों एवं गुरुचरणों में उपस्थित होते समय 'निसीहि' कहने का भाव यह है कि मैं इधरउधर के बाह्य विकल्पों का, द्वन्द्वों का निषेध एवं निराकरण कर, उनसे मुक्त हो कर यहाँ धर्म-साधना के लिए उपस्थित हुआ हूँ। मेरा मन एवं मस्किष्क साफ है। कोई कूड़ाकचरा उसमें नहीं है। वह पूरी तरह खाली है, भगवान् एवं गुरु की उपासना के लिए, उनके महनीय प्रकाश को ग्रहण करने के लिए।
नये भव्य निर्माण के लिए पहले के असुन्दर एवं दूषित को साफ करना ही चाहिए। झूठे, गंदे पात्र में यों ही दूध डाल देना, क्या अर्थ रखता है। स्लेट पर पहले कुछ यों ही अंट-संट लिखा हुआ है। अब उस पर कुछ और अच्छा लिखना है, तो पहले लिखे को साफ नहीं करना चाहिए? लिखे हए पर ही लिख देना चाहिए? यदि किसी तरह लिखने की झोंक में लिखे हुए पर लिख ही दिया, तो यह गड्डुम-गडम लेख क्या काम आएगा? कैसे पढ़ा जाएगा? यदि नहीं पढ़ा गया, तो वह लिखना व्यर्थ ही हुआ है न? "श्रम एव केवलम्।"
हाथ गंदे हैं। धल-कीचड़ में सने हैं, या शौच-क्रिया में लगे हए रहें हैं। क्या उन्हीं हाथों से अपने पूज्य के चरण छ लें? भोजन कर लें? अथवा दूसरों को मिष्टान्न का प्रसाद वितरण कर दें? गलत है यह सब ढंग । यह असभ्य लोगों का काम है। कोई भी सभ्य ऐसी गंदी हरकत नहीं कर सकता । आवश्यक है, पहले गंदे हाथ धोये जाएँ और फिर उनसे अपेक्षित पवित्र कर्म किये जाएँ।
कर्म-क्षेत्र में साधक जब संघर्षरत रहता है, तो उसका मन-मस्तिष्क गंदा हो जाता है। काम, क्रोध, मद, लोभ आदि की किसी-न-किसी गंदगी से दूषित हो जाता है, अभद्र एवं गलत संस्कारों का कूड़ा-कचरा मन में भर जाता है। अतः स्पष्ट है, कि उक्त गंदगी से भरे मन मस्तिष्क में अपने आराध्य प्रभु की भक्ति कैसे शुद्ध हो सकती है। अंट-संट संस्कारों एवं विचारों की बेमेल भीड़ में, बेसुरे कोलाहल में शान्त चित्त से कैसे प्रभु-स्मरण हो सकता है। ऐसा स्मरण केवल साम्प्रदायिक नियमों के पालन की एक बेगार काटना तो हो सकता है, मन के कण-कण को आनंद की अमत-धारा से आप्लावित करने वाला पुण्य-स्मरण नहीं हो सकता।
आप विशेष निमंत्रण पर किसी प्रेमी मित्र या संबंधी के घर मेहमान बनकर जा रहे हैं, तो ध्यान में रखिये, अपने घर की सुख-सुविधाओं के गुद-गुदे संकल्पों को घर पर ही छोड़ कर जाइए। उन्हें अपने मित्र या सम्बन्धी के घर पर भूल कर भी न ले जाइए। हो सकता है, जैसे सुख साधन आपको अपने घर पर प्राप्त है, वैसे वहाँ न प्राप्त हो। और यदि आप अपने प्राप्त सुख-साधनों के विकल्पों का भार उठाये हुए ही वहाँ पहुँचे हैं, तो आपको वहाँ मधुर मिलन का कुछ भी आनन्द न आएगा। आप अन्दर ही अन्दर कुड़-कुड़ाएंगे, बड़-बड़ाएँगे और अपने स्नेही मित्रों को गालियों से अलंकृत करेंगे। इतना ही नहीं, लौटने पर उसे यत्रतत्र बदनाम भी करेंगे। मधुरता के लिए गए थे और ले आए हैं कटुता। सिर्फ ले ही नहीं आए, कटुता दे भी आए हैं। दिमाग को खाली न करने का यह कितना भीषण दुष्परिणाम होता है, कुछ आता है, आपकी समझ में?
और हाँ, मित्र के यहाँ से वापस लौटते हए भी अपने दिमाग को खाली करके लौटिए। यदि उचित सम्मानसत्कार न हुआ हो; भूल से या अन्य किसी तरह कुछ अपमान हुआ हो, मनोनुकूल सुख-साधन उपलब्ध न हुए हों तो कोई बात नहीं, ऐसा हो जाता है प्रायः । पर, आप इस गंदगी को अपने दिमाग में भरकर न रखिए। बड़ी खराब बात है दिमाग को गंदगी से भरे रखना। क्योंकि कभी न कभी और कहीं न कहीं मुंह से बाहर आती है। और चिरागत स्नेह के मधुर वातावरण को विषाक्त बना देती है। इस तरह एक बार के टूटे हुए मन जीवन भर तो क्या, अनागत पीढ़ियों तक परस्पर नहीं मिल पाते हैं।
निर्भार होने का मार्ग : तनाव से मुक्ति
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