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जीवन में संयोग-वियोग का खेल चला ही करता है। संयोग-वियोग अपने आप में सुख-दुःख के कारण नहीं है, कारण है उनकी स्मृति । यह मानव-मन की दुर्बलता ही है कि वह स्मृति के भार को ढ़ोता रहता है और सुख-दुःख की अनुभूति करता रहता है।
पूर्व की स्मृतियाँ अशान्त स्थितियाँ पैदा करती हैं, तो मनुष्य के चिन्तन एवं कर्तव्य शक्ति को वे पंगु बना देती हैं, जिससे मनुष्य का विकास अवरुद्ध हो जाता है।
ठीक है, वर्तमान की अज्ञ अवस्था में स्मृति अपरिहार्य है, परन्तु वह मन का भार न बनने पाए, वह हमारे चिन्तन अथवा विचारों को जकड़ने न पाए। भूत, भविष्य के भार को एक ओर फेंक कर वर्तमान में जीना सीखें। ध्यान रखना है, स्मृति केवल स्मृति रहे, वह सुख-दुःख की दात्री न बन सके। स्मृतियों से असम्पक्त रहना ही तो जीवन जीने की कला है।
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