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एक सावधानी और अपेक्षित है। वह यह कि कहीं शुभ के साथ शुभ का अहंभाव भी मन में न प्रवेश कर जाए। यदि कभी भूल से अहं प्रवेश कर जाए, तो तत्काल उसका भी विरेचन कर मन को खाली कर लो। यह शुभ की सुगन्ध के साथ अशुभ की दुर्गन्ध बड़ी ही भयंकर है। यह शुभ को चौपट कर देती है। इस स्थिति में, शुभ की सुगन्ध, सुगन्ध न रहकर दुर्गन्ध ही हो जाती है। शुभ का आनंद तो अमृत-रस है। अत: उसे तो मन में बनाये रखो, और अहं को बाहर निकाल फेंको। कैसा भी अशुभ हो, उससे मन-मस्तिष्क को खाली करते रहना ही श्रेयस्कर है।
जहाँ तक मेरा अध्ययन है, चिन्तन है, मेरी समझ है, 'निसीहि' का यह सैद्धान्तिक मर्म है। अतः साधक को 'निसीहि' केवल बोलना ही नहीं है, उसके फलित रहस्य को समझना भी है। शब्द से आगे का सत्य शब्द का भाव है। उस भाव की अनुभूति ही साधना का अमृत-तत्त्व है।
निर्भार होने का मार्ग : तनाव से मुक्ति
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