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प्रस्थान
स्वार्थ - हेतु संसार नित, करता है अभियान
पर भूपति का सत्य के, हित सुन्दर प्रस्थान । आज उषा साकेत पुरी के, लिए प्रलय बन आई है, महलों से ले झोंपड़ियों तक, घटा शोक की छाई है। राजा, राज्य छोड़ कर काशी जाते, यह सुन कर जनता, पागल-सी दौड़ी महलों को वृद्ध, युवा, बालक, वनिता। भूपति - स्नेहासक्त बहुत से गला फाड़ कर रोते हैं, कौशिक को गाली देते हैं, क्रु द्ध, क्षुब्ध अति होते हैं। सहस्र - लक्ष की क्या गणना है, भीड़ भयंकर प्रांगण में, क्रोध और विद्रोह उछाले भरता, सब के कण • कण में । राज-पुरोहित श्वेत - श्मश्रुधर कहता- 'विधि की माया है, बड़े - बड़े ऋषि मुनि थक हारे, भेद न अब तक पाया है । प्रकृति नटी पल - पल में क्या-क्या रंग - कुरंग बदलती है ? नृप को रंक, रंक को राजा, बना दृगों को छलती है। आज पुष्प खिलता उपवन में, वह कल है मुरझा जाता, चढ़ता सूर्य सवेरे नभ में, शाम हुए पर ढल जाता। हरिश्चन्द्र हा, कल के राजा, आज बने भिक्षुक पके, कौशिक भिक्षुक बने पलक में, संचालक शासन - रथ के।" कवि कहता--"यह दुनिया क्या है ? इन्द्रजाल की माया है, मानव ! तेरी आँखों में यह, नशा कौन सा छाया है ?
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