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सत्य हरिश्चन्द्र
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'सुख में मानी, दुख में कायर' - अज्ञानी हैं कहलाते, ज्ञानी सुख में हर्ष न करते, नहीं सुख में घबराते !
दुराचार के कारण लाखों, रोज रईस बिगड़त किन्तु धन्य वे सत्य - हेतु, जो नृप से भिक्षुक बनते हैं ।" सूर्योदय होते ही राजा, रानी और तनय रोहित, स्वर्ण - महल से नीचे उतरे, रूप सर्वथा परिवर्तित |
रोहित, वसनाभूषण से जो, आज जीर्ण - सा चीवर पहने,
परिमण्डित नित रहता था, दास- बाल - सा लगता था ।
तारा मुक्ता खचित वस्त्र औ' भूषण का परित्याग किए, उतरी राजमहल से दुविध, दासी का सा रूप लिए । हरिश्चन्द्र निःशस्त्र नग्न शिर, एक मलिन चीवर धारे, देख अयोध्यावासी हा हा - शब्द पुकार उठे सारे । उमड़ पड़ी जनता चहुं दिशि से, हरिश्चन्द्र को घेर लिया, सहस्र - सहस्र कण्ठों ने जय के साथ, यही निर्घोष किया
"कौशल के सम्राट कहाँ तुम, जाते हो ? हमको तज कर, दीन, हीन, असहाय हमें अति क्रुद्ध साधु को अर्पित कर ?
चाहे कुछ हो, प्रभो ! आपको हम न कभी जाने देंगे, आज्ञा होते ही कौशिक को, पुर से बाहर डालेंगे ।" भूपति बोले - "धैर्य धरो, अब पलट नहीं कुछ सकता है, हरिश्चन्द्र अब नहीं सत्य के पथ पर से हट सकता है ।
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नहीं धूली की रेखा है जो, जरा हवा से मिट जाए, पत्थर की रेखा - सा प्रण है, क्या मजाल जो मिट जाए ?"
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