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सत्य हरिश्चन्द्र
अन्धकार में भी
की यह उज्ज्वल रेखा कैसी ?
भीषण विपदा में भी सुख की स्नेह पर लेखा कैसी ?
सुख - दुःख मन की झूठी चीजें, आनन्दित रहते हैं प्रेमी, कोटि
गीत
प्रेम बड़ा सब
कोटि संकट सहकर !
भारत
नाम अमर बना गईं, की कुल - नारियाँ, कर्तव्य - ज्योति जगा गईं, चिर उजली चिनगारियाँ ! दिया,
अर्पण कर
महल अटारियां !
पति परमेश्वर के लिए, जीवन संकट में अनुपद फिरी, छोड़ के कर्तव्य के पथ पर चढ़ी, परवाह न की सुख - दुःख की, वज्र समान कठोर थी, फूल • सी मृदु सुकुमारियाँ !
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दान, दया, और शील के, जौहर क्या महक रही हैं आज भी, सद्गुण की तारा, सीता, द्रौपदी, सावित्री और अंजना, एक से एक महान् थी, 'अमर' सदा बलिहारियाँ !
दिखला गई ? फुलवारियाँ !
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