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सत्य हरिश्चन्द्र
"भाग्यवती हैं, पति का इतना प्रेम
आदर पाया,
अपने दुःख का ध्यानु नका दुःख ही अकुलाया ।
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किन्तु
अर्द्धांगिनि हूँ,
“चाहे कुछ भी कहें आप, मैं
निज आदर्श न भूलूँगी, अपने प्रण पर भूलूँगी ।
बाधा अंग कष्ट में कलपे, आधा सुख के सागर में, न्याय कहाँ का खुद ही सोचें, अपने निर्मल अन्तर में ! आप एक, असहाय दुःख की, ठोकर खाएँ दर दर की, मैं महलों में मोजें लूटू, मखमल के गद्दों पर की।
कोटि-कोटि धिक्कार मुझे, यह बात न हर्गिज हो सकती, तारा महिलाओं की उज्ज्वल, मर्यादा कब खो सकती ? सुख में साथ रहे पति के, पर, दुःख में छोड़ अकेली हो, वह पत्नी, पत्नी न, पापिनी पथ से भ्रष्ट रखेली हो ।
कष्ट आपके संग जो होगा, कष्ट नहीं, वह सुख होगा, और आपसे पृथक रहे पर, सुख भी मुझको दुःख होगा !
विना आपके स्वर्ग लोक को, नरक लोक ही जानूंगी, किन्तु आपके साथ नरक को, स्वर्ग बराबर मानूंगी ! सौ बातों को एक बात, चरणों के साथ चलूंगी मैं, आप नहीं टलते निज प्रण से, कैसे नाथ ! टलूँगी मैं ?" आँखों के पथ अति द्रुतगति से झर झर अश्रु प्रवाह बहा, 'अच्छा प्रिये चलो' - भूपति ने मन्द हास्य के साथ कहा ! सूर्य देव निज किरण समेटे, अस्ताचल की ओर ढले, रानो लोला गति से, अन्तःपुर की ओर चले !
राजा
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