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आदर्श - संवाद
नृपति - दत्त आसन मिला, बैठे ऋषि मन मार,
न्याय - हेतु फिर यों वहाँ, होने लगा विचार ! "महाराज ! क्या न्याय चाहते ? सेवक को आज्ञा कीजे, उर की उलझी हुई पहेली, स्पष्टतया बतला दीजे।" "जिस घटना का न्याय चाहिए, कितना भीषण है वह पाप, मुझ से पूछ रहा है, क्या तू नहीं जानता अपने - आप ?" "शान्त रहें भगवन्! करुणानिधि! यहाँ क्रोध का काम नहीं, जान - बूझ कर व्यर्थ पूछने वाला मैं अघ - धाम नहीं ! अगर जानता मैं होता तो आप यहाँ फिर क्यों आते ? मैं ही स्वयं उपस्थित होता राष्ट्र - नियंता के नाते ।" "नृप, जिस तरह राज्य-शासन में सब अधिकार तुम्हारा है, उसी तरह आश्रम - शासन में सब - कुछ सत्व हमारा है। जिस प्रकार नृप, आप राज्य के दोषी को दण्डित करते, उसी तरह हम भी आश्रम के दोषी को शिक्षित करते ।" "क्षमा करें, यह बात आपकी मान्य नहीं हो सकती है, आश्रम भी कौशल में, इससे किसे विमति हो सकती है। आश्रम का अपराधी भी है, अतः राज्य का ही द्रोही, आप न उसे दण्ड दे सकते, राज्य दण्ड है सबको ही।"
"क्या कहता है, हम ऋषियों को नृप के आश्रित रहना है, आश्रम का अपराध करे, हम दण्ड न दें, क्या कहता है !"
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