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सत्य हरिश्चन्द्र
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अब तो मैं ही खुद आया हूँ न्याय - प्राप्ति का पथ ले कर, शासन के सब नियम पालने होंगे, अस्तु मुझे कटु - तर ! मैंने सोचा था जाते ही क्रोध दिखाकर भूपति को, बस्त करूंगा, चरण गिरा कर दूर करूगा दुर्मति को !
किन्तु यहाँ तो मन की सोची बिखर गईं सारी कड़ियाँ, जीवन में यह प्रथम बार देखी अप - गौरव की घड़ियाँ।"
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