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सत्य हरिश्चन्द्र
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"सत्य कहा है मैंने भगवन् ! इसमें कुछ अविचार नहीं, आप साधु हैं, अतः दण्ड देने का है अधिकार नहीं।" "भ्रष्ट-बुद्धि है तेरी, तुझ को ऋषि - गौरव का ध्यान नहीं, याद रहे, हम सन्त तनिक भी सह सकते अपमान नहीं । जब कि भूप ऋषिकृत नियमों से राज - दण्ड दे सकते हैं, तब हम आश्रम अपराधी की खबर क्यों न ले सकते हैं ?" "व्यर्थ क्रोध मत करिए भगवन् ! मैंने क्या अपमान किया, विहित विधानों का ही मैंने न्यायोचित व्याख्यान किया। दण्ड-विधाता भूपति है, अथवा भूपति के अधिकारी, और नहीं कोई हो सकता, शास्त्र - नियम है हितकारी।" "अच्छा, सिद्धाश्रम उपवन को ध्वस्त अप्सरा करती थीं, वृक्ष - लता, फल - फूल तोड़तीं, हँसती और अकड़ती थीं। बाँधी मैंने पुष्पलता के बन्धन में निज तप - बल से, किन्तु, एक प्रति द्वन्द्वी रिपु ने खोली गुप्त रूप छल से । स्पष्ट कहो, जो नर आश्रम का दोषी यों बन जाएगा, दण्ड - व्यवस्था के नियमों से कौन दण्ड वह पाएगा ?" अखिल काण्ड ऋषि के कहने से भूपति की स्मृति में आया, किन्तु वीतभय, सस्मित मुख से कौशिक से यों बतलाया। "भगवन् ! वह तो श्रीचरणों में यह सेवक समुपस्थित है, दण्ड घोर - से • घोर दीजिए, जो भी उचित अभीप्सित है।
उन्हें दया से मैंने छोड़ी, और न कुछ भी मतलब था, प्रतिद्वन्द्वी बन, व्यर्थ अवज्ञा का दुर्भाव कहाँ कब था ?
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