________________
सत्य हरिश्चन्द्र
४१
कितनी महिमा प्रबल सत्य की, तप-बल भी निःशक्त हुआ, आज पराजित एक गृही के, आगे एक विरक्त हुआ ।
तप जितना मुनि चाहे कर ले, किन्तु क्रोध यदि शान्त न हो, उससे गृही प्रशंसित है, जो तन मन सत्य-परायण हो !
हरिश्चन्द्र कर भ्रमण कर लौट, फिर अपने महलों में आए, घटना को भूल गए थे, लक्ष्य नहीं मन में लाए ।
वन
10
Jain Education International
-11
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org