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विश्वामित्र का कोप
क्रोध भयंकर शत्रु है, करता जीवन नष्ट,
धर्म, कर्म, तप, योग से मानव होता भ्रष्ट ! कोशिक - ऋषि आश्रम - कुटीर में ध्यान समाधि लगाते हैं, किन्तु कोप से कम्पित चंचल चित्त न वश कर पाते हैं। रह - रह कर वह दृश्य क्लेश का चक्कर काट रहा मन में, कोपानल की ज्वालाओं का दाह दहकता है तन में। दीप - शलाका - तुल्य क्रोध है, नहीं शान्ति रह पाती है,
औरों को जब भस्म करे, तो स्वयं भस्म हो जाती है । मुनिवर सोच रहे थे-"मेरा कैसा है दुर्दम तप - बल, पल - भर में ही बंधी अप्सरा, भूल गईं दैवी छल - बल ! त्रिभुवन में अब कोई भी जन मुक्त नहीं कर सकता है, कर सकता है, मुक्त अगर तो कोशिक ही कर सकता है। इनके पति अब दीन दुखी - से अनुनय करने आएँगे, श्री - चरणों की धूलि चाट निज पत्नी मुक्त कराएँगे।" कौशिक ऋषि यों मनःकल्पना - नभ में उडते जाते हैं, इतने में आ शिष्य, कल्पनाओं पर वज्र गिराते हैं। "भगवन् ! बद्ध देवियाँ, होकर मुक्त, स्वर्ग को चली गईं" सुनते ही कौशिक मुनि की भी, बुद्धि : चेतना दली गई। "विस्मय है अति ही विस्मय है, मुक्त""अरे, क्या सत्य कहा ? क्या मेरे तप में इतना भी आज नहीं सामर्थ्य रहा?
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