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________________ सत्य हरिश्चन्द्र बिछा जाल छल • छन्द का हंत कैसा, सचाई उभरने नहीं पा रही है ! बड़ी मौज करते हैं दुर्जन 'अमर' अब, विपत्ति सज्जनों पै गजब ढा रही है। शास्त्राध्ययन - निरत शिष्यों ने देखा तो अति अकुलाये, आश्रम का अपमान देख कर द्रुत गति से दौड़े आये ! "यह तुम क्या करती हो, आश्रम - मर्यादा का ध्यान नहीं, पुष्प तोड़ने को न मिला क्या, और कहीं भी स्थान नहीं ?" "कैसा आश्रम ? कौन यहाँ तुम, स्वत्व जमाने वाले हो ? क्रीड़ा करती हैं स्वतन्त्र हम, कौन रोकने वाले हो ?" "कौन आप, जो नहीं जानतीं इस आश्रम की गरिमा को, मुनिवर विश्वामित्र महत्तम, जान रहे सब महिमा को !" "होगा कोई, हमें पता क्या ? हटो, फूल हम तोड़ेंगी, पूजा - हित आराध्य देव की, पुष्प-हार हम जोड़ेंगी !" हँसी उड़ाने लगीं, विचारे शिष्य बड़े ही सकुचाये, समाधिस्थ गुरुवर ढिंग जाकर जोर - जोर से चिल्लाये ! ध्यान खोल कर ऋषि ने ज्यों ही कथा सुनी अथ से सारी, आये क्रुद्ध क्षुब्ध हो त्यों ही, उपवन - मध्य परशु - धारी ! क्रोधित होकर कहा अप्सराओं से- "यह क्या करती हो? सिद्धाश्रम की मर्यादा का कुछ भी मान न करती हो ! नहीं जानतीं, यह आश्रम है विश्वामित्र मुनीश्वर का, आज कोप से जिसके कम्पित, बल-विक्रम संसृति-भर का ! अबला तुमको जान क्षमा करता हूँ शीघ्र चली जाओ, व्यर्थ कोप में पड़ कर मेरे क्यों असीम संकट पाओ !" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001309
Book TitleSatya Harischandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size8 MB
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