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सत्य हरिश्चन्द्र
हरिश्चन्द्र आकर बन्धन से मुक्ति दिला देगा ज्यों ही, ऋषिवर क्या है भूत भयंकर, चिपट जायगा झट त्यों ही !" लगा अप्सराओं से कहने- "चुनों फल जा आश्रम में, ध्वस्त बना दो पुष्प वाटिका, करो विलंब न विक्रम में ! विधि अनुकूल हुआ है कैसा अभी कार्य बन जाता है, हरिश्चन्द्र औ' गाधितनय में द्वन्द युद्ध ठन जाता है। विश्वामित्र - कोप से प्यारी जरा नहीं दिल में डरना, जो कुछ भी दें दण्ड शान्ति के साथ सहन सब कुछ करना ! हरिश्चन्द्र तुम सब को आ कर बन्धन - मुक्त बना देगा, विश्वामित्र - कोप को पागल अपने शीश स्वयं लेगा।" विश्वामित्र - कोप से परिचित डरें अप्सराएं मन में, किन्तु क्रुद्ध पति की आज्ञा पा घुसी सशंकित - सी वन में ! पुष्प वाटिका से चुन - चुन कर फूल तोड़ती जाती हैं, भ्रमर - वृन्द को मन्द हास्य के साथ उड़ाती जाती हैं ! पति की आज्ञा में तन चलता, किन्तु न मन है विश्वासी, दुनिया की मक्कारी से है दिल में उथल पुथल खासी !
गीत
यह दुनिया दुरंगी किधर जा रही है ?
पतन के गढ़े में गिरी जा रही है ! घणा - द्वष का दौर चहुं ओर छाया,
भलाई के बदले बुरा चाह रही है ! किसी को न सत्कर्म का ध्यान आता,
घटा पाप की जोर से छा रही है !
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