SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्य हरिश्चन्द्र ३५ एक बार तो देख क्षुब्ध मुनि, सभी अप्सरा घबराई, पति - आज्ञा वश किन्तु दूसरे क्षण में ही सब गरमाई ! "कौन आप हैं ? हमें रोकने वाले, बस चुप रहियेगा, जो कुछ करना करें खुशी से, व्यर्थ न मुख से कहियेगा ! साधु होकर भी ममता का पाश नहीं मन से छूटा, घर ही रहते तो अच्छा था मोह न उपवन का टूटा ! मुनि बन कर हम सुन्दरियों से क्या बातें करने आये, जाओ, अपना काम करो, क्यों आते भी ना शरमाये ।" रूप- माधुरी - मत्त अप्सरा मुनि को लज्जित करती हैं, नाभि - विलम्बित श्वेत - कृचिका देख देख कर हँसती हैं ! कौशिक ऋषि के क्रोधानल की ज्वाला बड़ी उग्र भड़की, एक बार ज्यों गगनांगण में शत-शत विद्यत हों कड़की ! तपस्तेज से देवयोनि के कारण भस्म न हो पाईं, शाप - ध्वनि प्रगटी तब सहसा शान्त प्रकृति भी थर्राई ! - "जिन हाथों से दुष्टाओ, यह तुमने उपवन नष्ट किया, चारु वल्लरी, फूल और फल तोड़े आश्रम भ्रष्ट किया ! वे कुत्सित कर, लतिकाओं में तप जीवन की अन्तिम घड़ियों तक बँधे - Jain Education International प्रभाव से बँध जाएँ, बँधे ही सड़ जाएँ !” तपश्चरण की प्रबल शक्ति है, देव शक्ति भी अवनत हो, तपोधनों का शाप और वरदान न निष्फल प्रतिहत हो ! दिव्य शक्ति - सम्पन्न अप्सराओं की तनिक न शक्ति चली, कोमल कर पल्लव बेलों से बँधे, गर्व गरिमा निकली ! For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001309
Book TitleSatya Harischandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy