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________________ १८२ सत्य हरिश्चन्द्र धन्य - धन्य नृप हरिश्चन्द्र हैं, धन्य - धन्य तारा रानी। सत्य - धर्म की रक्षा के हित, झेली क्या • क्या हैरानी । अजर-अमर यश जग में अब तक, - शास्त्रकार नित गाते हैं। जीवन-वृत्त श्रवण कर पुलकित, श्रोता नहीं अघाते हैं। सर्वोत्तम था यह जीवन भी, सर्वोत्तम वह जीवन है। जन्म - मृत्यु का स्पर्श नहीं अब, ___ चरणों में नित वन्दन है। पाठक वृन्द ! विश्व में केवल, शुद्ध सत्य की पूजा है। मानव की महिमा का सचमुच, __ कारण और न दूजा है। अगर हृदय से पाप - कर्म का, कुत्सित कलि - मल धोना है । श्रेष्ठ सत्य अपनाएँ, बेड़ा पार इसी से होना है। हरिश्चन्द्र का श्रेष्ठ सत्य - पथ, . स्पष्ट आपके सम्मुख है। धीरे - धीरे बन चलें निरन्तर, बाधाओं का क्या दुःख है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001309
Book TitleSatya Harischandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size8 MB
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