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जीवन - संगिनी
तन • मन पर तारुण्य का बहता प्रबल प्रवाह, प्रजा, सचिव चिन्तित सभी करते क्यों न विवाह ! मन्त्रीश्वर ने कहा- "भूप, क्यों सम्राज्ञी का पद खाली, यौवन-वय में क्यों न गृही के जीवन में है हरियाली ? सूर्यवंश के राजाओं का न्याय सदा से आया है, प्रथम गेह में पत्नी व्रत फिर त्याग - मार्ग अपनाया है ।। किन्तु आपने त्याग - मार्ग क्यों पहले ही अपना लोना, स्वर्ण महल सूना - सूना है, क्यों पूर्वज - पथ तज दीना ? बड़े - बड़े राजा, राजेश्वर प्रणय - निमन्त्रण लाते हैं, एक - एक से सुन्दर कन्याओं के चित्र दिखलाते हैं।
किन्तु आपके मन में क्या है, नहीं जरा भी 'हाँ' भरते, जब भी जिक्र जरा-सा चलता, तभी शीघ्र 'ना-ना' करते। आशंकित है प्रजा आपको, कहीं भूप वैराग्य न लें, हमें त्याग कर, साधु बन कर, वन - पर्वत की राह न लें। सही आप में नहीं वासना, किन्तु प्रार्थना स्वीकृत हो, महारानी का दर्शन पाकर, प्रभो, प्रजा - मन प्रमुदित हो।" कहा भूप ने हँस कर- “मन्त्री व्यर्थ हुई यह चिन्ता क्या ? कहाँ त्याग - वैराग्य ? गृही की पूर्ण हुई मर्यादा क्या ? वैवाहिक जीवन की चिन्ता से ही मैं भी चिन्तित हूँ, सूर्यवंश का चुका चलू ऋण, हुआ यदर्थ समर्पित हूँ। किन्तु योग्य गृहिणी न मिले, तो मंत्री ! मेरा क्या दूषण ? गृहीधर्म में गुणशीला ही पत्नी है पति का भूषण ॥"
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