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सत्य हरिश्चन्द्र
"नमस्कार, तुम कौन अपरिचित ? दर्शन देने आए हो, स्वर से नहीं विभीषण, जैसा भीषण रूप बनाए हो। क्या तुम सचमुच मुझ से ही, हतभाग्य कर्म के मारे हो, अथवा कोई छद्म - वेश धर, देव दयालु पधारे हो !
सकरुण-कण्ठ, मधुर स्वर कैसा? तुम वर देव विनिश्छल हो, मुझ दुखिया का दूर करो दुःख, तुम शरणागत वत्सल हो ! अब क्या और परीक्षा लेते, इस छल का परित्याग करो, आये हो तो कृपा करो कुछ, मेरा जीवित पुत्र करो !"
तारा गद्गद स्वर से रोती, और प्रार्थना करती है, पा कर समवेदना हृदय की, पीड़ा और उभरती है। "भद्र ! क्यों विश्वास न करती ? स्पष्ट सत्य में कहता हूँ, देव नहीं, हत भाग्य मनुज' मैं, इस मरघट में रहता हूं ! रात्रि - दिवस का वास यहाँ है, मृतक - दाह करवाता हूं, अर्ध कफन कर लेता हूँ, निज जीवन - काल बिताता हूं ! तुम भी सोचो, मरे हुए भी, भला कभी जीवित होते, प्राणी, यम के मुख में जा कर, कभी नहीं वापस होते ! देव, अगर जीवित कर दें तो, फिर क्यों आप विवश मरते ! सुर हो, नर हो, या कोई हो, विधि के लेख नहीं टरते । प्रतिदिन मरघट में ऐसे ही, दृश्य भयंकर आते हैं, पुत्र, पिता, माता, पति, पत्नी, रोते हैं, कलपाते हैं ! ऋन्दन की ध्वनि सुनते - सुनते, वज्र • कठोर बन गया मैं, मात्र शरीर खड़ा है, दिल से करुणा - शून्य बन गया मैं । अच्छा देवी, धरो धीर तुम, व्यर्थ न हा - हा कार करो, अर्ध कफन दो मुझको, आओ, शीघ्र मृतक-संस्कार करो।"
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