________________
सत्य हरिश्चन्द्र
१६५
तारा सुन कर बात नृपति की, दीन - भाव से रोती है, भूत और सम्प्रति की भीषण, टक्कर मन में होती है। कौशल की सम्राज्ञी पर, क्या संकट की बदली छाई, हा, प्रिय सुत के लिए कफन का, वस्त्र न आज जुटा पाई ! "मैं दुखियारी, मुझ सम कोई, और न जग में निर्भागन, फंसी हुई हूँ बड़ी विपद में निःसहाय अबला - जीवन । लाज बड़ी आती है, फिर भी, मौन रहे क्या होना है ? कफन नहीं, तो अर्ध कफन का, प्रश्न कहाँ हल होना है ?" भूपति चौंक उठे यह सुनकर-"अरे कहा क्या कफन नहीं ? ऐसा क्या दारिद्रय् ? जगत में, ऐसा होता कभी कहीं ? घर में क्या कोई न ? अकेली, जो तुम मरघट में आई, क्या तुम विधवा निःसहाय हो ? जो ऐसी विपदा पाई ।" "क्षमा करें, ऐसा न बोलिये, प्रभु - करुणा से सधवा हूँ, कैसे तुमने समझ लिया, मैं विश्व-अमंगल विधवा हूं ?" "क्षमा कीजिये देवी ! मुझको दुःस्थिति ने भ्रम में डाला, पति होते यह दुरवस्था क्यों ! समझ न पाया मैं बाला !
पति है तब भी क्या है ? निष्ठुर साथ न तेरे आया क्यों ? दे न सका जो कफन पुत्र को वथा जनक-पद पाया क्यों ? उस पति को धिक्कार अनेकों, वह पति - नाम लजाता है, इस प्रसंग में भी पत्नी की, जो न मदद कर पाता है।"
इतना सुनना था, तारा का, हृदय खेद से खिन्न हुआ, मानों वक्ष विषाक्त छुरी के, द्वारा सहसा भिन्न हुआ। कष्ट न पाया राज्य त्याग कर, ब्राह्मण की दासी बन कर, आज असह्य कष्ट था मन में निज पति की निन्दा सुनकर ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org