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सत्य हरिश्चन्द्र भाग्य दोष से मिला मुझे क्या, कर्म घोर निर्दय निन्दित, वस्त्र मांगना होगा, इसको करना होगा, हा दुःखित !" मन पीछे को भाग रहा है, किन्तु देह आगे चलता, स्वामी की आज्ञा के कारण, कठिन कार्य करना पड़ता।
विद्य त का आलोक हुआ जब, देखा निज सम्मुख आतारौद्र रूप प्रत्यक्ष काल-सा, तारा का दिल घबराता । क्षत्रिय बाला थी साहस कर, बोली-“अरे कौन है तू ? मेरा लाल चुराने आया, समझ गई अन्तक है तू।।
हट जा तू मेरी आँखों के आगे से, मत साहस कर, मेरे जीते जी प्रिय - सुत को, ले न सकेगा रजनीचर !" हश्चिन्द्र थे विस्मित-"यह क्या धधक उठी सहसा ज्वाला अभी-अभी तो दैन्य-शोक का बहता था गद - गद नाला !" "देवी ! मैं यमराज नहीं हूँ, और न कोई दानव हूँ, विपद्ग्रस्त हतभाग्य तुम्हारी तरह, एक लघु मानव हूँ। वृथा शोक क्यों करती हो ? जग की यह रीति सनातन है, मानव की यह अन्तिम परिणति, क्षण-नश्वर नर का तन है।
क्या मानव, क्या देव सभी को, एक दिवस यह आता है, पलभर में ही मृत्यु कहीं - से - कहीं, उड़ा ले जाता है। हाँ, अवश्य ही दुःख भयंकर, पुत्र - मृत्यु क्या वज्र-पतन ! मातृ-हृदय की इस ज्वाला का जीवन भर होता न शमन ! किन्तु हाथ की बात नहीं कुछ, यह दुःख सहना ही होगा, धैर्य तथा सन्तोष अन्ततः दिल में भरना हो होगा !" तारा इस सौजन्य - पूर्ण मृदु करुणा - वाणी को सुन करसमझी--यह है कोई सज्जन, करुणा · ममता का सागर ।
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